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४३८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १. पंचम-ट्टाण-हिद-आणियट्टीणं भण्णमाणे अत्थि एयं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छप्पज्जत्तीओ, दस पाण, परिग्गहसण्णा, मणुसगदी, पंचिदियजादी, तसकाओ, णव जोग, अवगदवेदो, लोभकसाओ, माणोदये विणटे पुणो अंतोमुहुत्तं गंतूण माओदओ वि णस्सदि तेण मायाकसाओ तत्थ णत्थि । चत्तारि णाण, दो संजम, तिण्णि दसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण सुक्कलेस्सा; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं, सणिणो, आहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अणागारुवजुत्ता वा ।।
सुहुमसांपराइयाणमोघालावे भण्णभाणे अत्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, सुहुमपरिग्गहसण्णा, मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, अवगदवेदो, सुहुमलोभकसाओ, चत्तारि णाण, सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजमो, तिण्णि दंसण, दव्वेण छ लेस्साओ, भावेण शुक्ललेस्सा; भवसिद्धिया, दो सम्मत्तं,
अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके पंचम भागवर्ती जीवोंके ओघालाप कहनेपर-एक नौधा गुणस्थान, एक संज्ञा-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, परिग्रहसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, पूर्वोक्त नौ योग, अपगतवेद, लोभकपाय है। लोभकषाय होनेका यह कारण है कि मानकषायके उदयके नष्ट हो जाने पर पुनः एक अन्तर्मुहर्त आगे जाकर मायाकषायका उदय भी नष्ट हो जाता है, इसलिए मायाकपाय इस भागमें नहीं है। आगे केवलज्ञानके विना चार ज्ञान, सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो संयम, केवलदर्शनके विना तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या, भव्यसिद्धिक, औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवी जीवोंके ओघालाप कहनेपर-एक दशवां गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, सूक्ष्म परिग्रहसंज्ञा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिक काययोग ये नौ योग, अपगतवेद, सूक्ष्म लोभकषाय, केवलज्ञानके विना चार ज्ञान, सूक्ष्मसाम्परायविशुद्धि संयम, केवलदर्शनके विना तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं, भावसे शुक्ललेश्या, भव्यसिद्धिक,
नं. २१
अनिवृत्तिकरण-पंचमभाग-आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं ग. ई.का. । यो. ये. क. ज्ञा. संय | द. ले. भ.
स. संशि. आ.
3.
२
प.
पंचे -
स. म.४
अनि. सं.प. पंच. भा.
अपग. 01
| के. सा. के. द. द. भ. औ. सं. विना. छे. विनाः १क्षा .
भा.
आहा साका.
अना.
औ.१
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