Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४४२ ]
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, १.
संजदट्ठाणे णियमा पत्ता ' त्ति एदं सुतं बाहिञ्जदि, 'ओरालियमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं'' ति एदेण ण बाहिज्जदि सावगासत्तेण बलाभावादों । ण, 'संजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता'' त्ति एदस्स वि सुत्तस्स सावगास त्तदंसणादो । सजोगिट्ठाणं दोसु वि सुत्ते सावगासेस जुगवं ढुक्केसु ' संजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ता' ' त एदेण सुत्तेण ओरालियमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं ' ति एदं सुत्तं बाहिज्जदि परत्तादों । ण, परसहो इवाओं तिघे पमाणे पुव्वेण बाहिज्जदि ति अणेयंतियादो । नियम- सद्दो
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अर्थात् इस सूत्र की प्रवृत्तिके लिये कोई दूसरा स्थल नहीं है, अतः इस सूत्र से 'संयतोंके स्थानमें जीव नियमसे पर्याप्तक ही होते हैं' यह सूत्र बाधा जाता है। किंतु औदारिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकोंके ही होता है' इस सूत्र से 'संयतोंके स्थान में जीव पर्याप्तक ही होते हैं यह सूत्र नहीं बाधा जाता, क्योंकि, औदारिकमिश्र काययोग अपर्याप्तकोंके होता है' यह सूत्र सावकाश होनेके कारण, अर्थात्, इस सूत्रकी प्रवृत्तिके लिये सयोगियोंको छोड़कर अन्य स्थल भी होनेके कारण, निर्बल है अतः आहारकसमुद्वातगत जीवोंके जिसप्रकार अपर्याप्तपना सिद्ध किया जा सकता है उसप्रकार समुद्घातगत केवलियोंके नहीं किया जा सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, 'संयतोंके स्थानमें जीव नियमसे पर्याप्तक होता है ' यह सूत्र भी सावकाश देखा जाता है, अर्थात्, सयोगीको छोड़कर अन्य स्थल में भी इस सूत्रकी प्रवृत्ति देखी जाती है, अतः निर्बल है और इसलिये ' औदारिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तोंके ही होता है' इस सूत्रकी प्रवृत्तिको नहीं रोक सकता है ।
शंका- पूर्वोक्त समाधान से यद्यपि यह सिद्ध हो गया कि पूर्वोक्त दोनों सूत्र सावकाश होते हुए भी सयोगी गुणस्थानमें युगपत् प्राप्त हैं, फिर भी ' परो विधिर्बाधको भवति' अर्थात्, पर विधि बाधक होती है, इस नियमके अनुसार 'संयतोंके स्थानमें जीव नियमसे पर्याप्तक होते हैं' इस सूतके द्वारा 'औदारिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकोंके ही होता है ' यह सूत्र बाधा जाता है, क्योंकि, यह सूत्र पर है ?
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समाधान नहीं, क्योंकि, परो विधिर्बाधको भवति' इस नियम में पर शब्द इट अर्थात् अभिप्रेत अर्थका वाचक है, पर शब्दका ऐसा अर्थ लेनेपर जिसप्रकार 'संयतस्थान में जीव नियमसे पर्याप्तक होते हैं' इस सूत्र से औदारिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकोंके होता
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१ जी. सं. सू. ९०.
२ जी. सं. सू. ७८.
३ अपवादो यदन्यत्र चरितार्थस्तर्हि अन्तरंगेण वाध्यते निरवकाशत्वरूपस्य वाधकत्ववीजस्याभावात् । परि०
शे. पृ. ३८६.
४ पूर्वात्परं बलवत् विप्रतिषेधशास्त्रात् (विप्रतिषेधे परं कार्यमिति सूत्रात्) पूर्वस्य परं बाधकमिति यावत् । परि. शे. पृ. २३७.
२ विप्रतिषेधसूत्रस्थपरशब्दस्येष्टवाचित्वम् । परि. शे. पृ. २४५.
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