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१, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दार ओघालाववण्णणं
। ४३३ ____ अप्पमत्तसंजदाणमोघालावे भण्णमाणे अस्थि एवं गुणट्ठाणं, एओ जीवसमासो, छ पजत्तीओ, दस पाण, तिणि सण्णाओ, असादावेदणीयस्स उदीरणाभावादो आहारसण्णा अप्पमत्तसंजदस्स णत्थि । कारणभूद-कम्मोदय-संभवादो उवयारेण भय-मेहुणपरिग्गहसण्णा अत्थि । मणुसगदी, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिण्णि वेद,
लापोंके अतिरिक्त उनके पर्याप्त और अपर्याप्त संबन्धी आलापोंका स्वतन्त्ररूपसे कथन किया है फिर भी छठे गुणस्थानमें पर्याप्त और अपर्याप्त संबन्धी आलापोंका स्वतन्त्र कथन न करके केवल ओघालाप ही कहा गया है, इससे ऐसा प्रतीत होता है कि धवलाकारकी दृष्टि विग्रहगतिसंबन्धी गुणस्थानों में ही पृथक् रूपसे आलापोंके दिखानेकी रही है अन्य अपर्याप्त संवन्धी गुणस्थानों में नहीं। गोम्मटसार जीवकाण्डकी टोकामें भी अन्तमें आलापोंका कथन करते हुए टीकाकारने इसी सरणीको ग्रहण किया है। अतएव मूलमें छठे गुणस्थानमें पर्याप्त और अपर्याप्त संबन्धी आलापोंका पृथक रूपसे नहीं पाया जाना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। फिर भी सर्व साधारण पाठकोंके परिक्षानार्थ वे यहां लिखे ज
प्रमत्तसंयतके पर्याप्तसंबन्धी ओघालापके कहनेपर-एक छठा गुणस्थान, एक संझी
जीवसमास. छहों पर्याप्तियां. उसों प्राण, चारो संज्ञाएं, मनप्यगति, पंचेन्द्रिय जातित्रसकाय, वैक्रियककाय और अपर्याप्तसंबन्धी चारों योगोंके विना दश योग, तीनों वेद, चारों कषाय, केवल-ज्ञानके विना चार ज्ञान, सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि ये तीन संयम, केवल दर्शनके विना तीन दर्शन, द्रव्यसे छहों लेश्याएं और भावसे पति, पद्म और शुक्ल, ये तीन लेश्याएं, भव्यासद्धिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये तीन सम्यक्त्व, संक्षिक, आहारी, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
- अपर्याप्त अवस्थाको प्राप्त उन्हीं प्रमत्तसंयतोंके ओघालाप कहनेपर-एक छठा गुणस्थान, एक संज्ञी-अपर्याप्त जीवसमास, छहों अपर्याप्तियां, मन, वचनबल और श्वासोच्छ्वासके विना सात प्राण, चारों संज्ञाएं, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसकाय, एक आहारमिश्रकाययोग, एक पुरुष वेद, चारों कषाय, मनःपर्यय और केवलज्ञानके विना तीन शान, सामायिक और छेदोपस्थापना संयम, केवल दर्शनके विना तीन दर्शन, द्रव्यसे कापोत लेश्या, भावसे पति, पद्म और शुक्ल लेश्या, भव्यसिद्धिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्यग्दर्शन, संक्षी, आहारी, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
अप्रमत्तसंयत जीवोंके ओघालाप कहनेपर-एक सातवां गुणस्थान, एक संक्षी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, आहार, भय और मैथुन ये तीन संज्ञाएं, होती हैं, क्योंकि, असातावेदनीय कर्मकी उदीरणाका अभाव हो जानेसे अप्रमत्तसंयतके आहारसंशा नहीं होती है। किन्तु भय आदि संशाओंके कारणभूत कर्मीका उदय संभव है, इसलिये उपचारसे भय, मैथुन और परिग्रहसंज्ञाएं हैं। संशाके आगे मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सकाय, चार मनोयोग, चार वचनयोग और औदारिककाययोग ये नौ योग, तीनों वेद, चारों कषायें, केवलहानके
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