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संत-पख्वणाणुयोगदारे ओघालाबवण्णणं लब्भदि तेण तिण्णि सम्मत्ताणि अपजत्तकाले भवंति । सणिणो, आहारिणो अणाहारिणो, सागारुवजुत्ता होति अगागारुबजुत्ता वा ।
संजदासंजदाणमोघालावे भणमाणे आत्थि प्यं गुणहाणं, एओ जीवसमासो, छ पञ्जत्तीओ, दस पाण, चत्तारि सण्णाओ, दो गदीओ, पंचिंदियजादी, तसकाओ, णव जोग, तिष्णिवेद, चत्वारि कसाय, तिष्णि णाण, संजमासंजम, तिणि दंसण, दव्येण छ लेस्साओ, भावेग तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ; केई सरीर-णिव्यत्तणहमागदपरमाणु-वण घेत्तूण संजदासंजदादीण भावलेस्सं परूवयंति । तण्ण घडदे, कुदो ? दव्य-भावलेस्साणं भेदाभावादो 'लिम्पतीति लेश्या' इति वचनव्याघाताच्च । कम्म-लेवहेददो जोग-कसाया चेव भाव-लेस्सा त्ति गेण्हिदव्यं । भवसिद्धिया, तिणि सम्मचाणि,
सम्यमत्वके आगे संक्षिक, आहारक, अनाहारक, साकारोपयोगी और अनाकारोपयोगी होते हैं।
संयतासंयत जीवोंके ओघालाप कहने पर--एक पांचवा गुणस्थान, एक संज्ञी-पर्याप्त जीवसमास, छहों पर्याप्तियां, दशों प्राण, चारों संज्ञाएं, तिथंच और मनुष्य ये दो गतियां, पंचेन्द्रिय जाति, त्रसकाय, चार मनोयोग, चार वचनयोग और औदारिककाय ये नौ योग, तीनों वेद, चारों कषायें, आदिके तीन ज्ञान, संयमासंयम, आदिके तीन दर्शन, द्रव्यकी अपेक्षा छहों लेश्याएं, भावकी अपेक्षा तेज, पद्म और शुक्ललेश्याएं होती हैं।
कितने ही आचार्य, शरीर-रचनाके लिये आये हुए परमाणुओंके वर्णको लेकर संयतासंयतादि गुणस्थानवी जीवोंके भावलेश्याका वर्णन करते हैं। किन्तु यह उनका कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि, वैसा माननेपर द्रव्य और भावलेश्यामें फिर कोई भेद ही नहीं रह जाता है और 'जो लिम्पन करती है उसे लेश्या कहते हैं, इस आगम वचनका व्याघात भी होता है। इसलिये 'कमलेपका कारण होनेसे योग और कषायसे अनुरंजित प्रवृत्ति ही भावलेश्या है' ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिये।
लेश्याओंके आगे भव्यसिद्धिक, तीनों सम्यक्त्व, संज्ञिक, आहारक, साकारोपयोगी और
असंयत लम्याग्रियोंके अपर्याप्त आलाप. | गु. जी. प. प्रा. सं. ग. ई. का यो. वे. क. ज्ञा.। संयद. ले. भ. सं. सज्ञि. आ. उ. १ १ ६ । ७ | ४ ४ ५ ५ ३ २ ४ ३ । १ ३ द्र.२ १ ३ । १ १ / २. .सं.अ. अप. अप पं . औ मि.१ स्त्री. मति. असं.के. द. का. शु. म औ. सं. आहा.साका
वे. मि. १ विना श्रुत. विना. भा.६ क्षा. अना. अना. कार्म. १ अव.
क्षायो.
आवि.
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