Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादका परिचय
अनुरूपोऽनुकूलो वा योगोऽनुयोगः सूत्रस्य निजेनाभिधेयेन सार्द्धमनुरूपः सम्बन्ध इत्यर्थः । अर्थात् — सूत्रद्वारा प्रतिपादित अर्थके अनुकूल संबंधका नाम ही अनुयोग है । तात्पर्य यह कि जिसमें सूत्र कथित सिद्धांत या नियमों के अनुकूल दृष्टान्त और उदाहरण पाये जावें वह अनुयोग है | उसके दो भेद करनेका अभिप्राय नंदीसूत्रकी टीकामें यह बतलाया गया है कि
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इह मूलं धर्मप्रणयनात् तीर्थकरास्तेषां प्रथमः सम्यक्त्वाप्तिलक्षणपूर्वभवादिगोचरोऽनुयोगो मूलप्रथमानुयोगः । इक्ष्वादीनां पूर्वापरपर्वपरिच्छिन्नो मध्यभागो गण्डिका, गण्डिकेव गण्डिका, एकार्थाधिकारा ग्रंथपद्धतिरित्यर्थः । तस्या अनुयोगो गण्डिकानुयोगः ।
इसका अभिप्राय यह है कि धर्मके प्रवर्तक होनेसे तीर्थंकर ही मूल पुरुष हैं, अतएव उनका प्रथम अर्थात् सम्यक्त्वप्राप्तिलक्षण पूर्वभव आदिका वर्णन करनेवाला अनुयोग मूलप्रथमानुयोग है । और जैसे गन्ने आदिको गंडेरी आजू बाजूकी गांठोंसे सीमित रहती है ऐसे ही जिसमें एक एक अधिकार अलग अलग हो उसे गंडिकानुयोग कहते हैं, जैसे कुलकरगंडिका आदि । किन्तु यह विभाग कोई विशेष महत्व नहीं रखता क्योंकि दोनोंमें विषयकी पुनरावृत्ति पायी जाती है। जैसे तीर्थंकर और उनके गणधरोंका वर्णन दोनों विभागों में आता है । दिगम्बरोंमें ऐसा कोई विभाग नहीं किया गया और साफ सीधे तौरसे बतलाया गया है कि दृष्टिवादके प्रथमानुयोगमें चौबीस अधिकारोंद्वारा बारह जिनवंशों और राजवंशोंका वर्णन किया गया है।
दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रथमानुयोगका अर्थ इसप्रकार किया गया है
प्रथमं मिथ्यादृष्टिमव्रतिकमन्युत्पन्नं वा प्रतिपाद्यमाश्रित्य प्रवृत्तोऽनुयोगोऽधिकारः प्रथमानुयोगः ( गोम्मटसार टीका )
इसका अभिप्राय यह है कि ' प्रथमं ' का तात्पर्य अत्रती और अव्युत्पन्न मिथ्यादृष्टि शिष्यसे है और उसके लिये जिस अनुयोग की प्रवृत्ति होती है वह प्रथमानुयोग कहलाता है । इसीके भीतर सब पुराणोंका अर्न्तभाव हो जाता है । किन्तु इसका पद- प्रमाण केवल पांच हजार बतलाया गया है । इससे जान पड़ता है कि दृष्टिवादके अन्तर्गत प्रथमानुयोगमें सर्व कथावर्णन बहुत संक्षेपमें किया गया था । पुराणवादका विस्तार पीछे पीछे किया गया होगा ।
नन्दिसूत्रकी टीका में गंडिकानुयोगके अन्तर्गत चित्रान्तरगण्डिकाका बड़ा ही विचित्र और विस्तृत परिचय दिया है । पहले उन्होंने बतलाया है कि
' कुलकराणां गण्डिकाः कुलकरगण्डिकाः, तत्र कुलकराणां विमलवाहनादीनां पूर्वभवजन्मादीनि सप्रपञ्चमुपवर्ण्यन्ते । एवं तीर्थकरगण्डिकादिष्वाभिधानवशतो भावनीयं ' जाव चित्तंतर गंडिभाऊ 'ति ।
अर्थात् कुलकरगण्डिकामें विमलवाहनादि कुलकरोंके पूर्वभव जन्मादिका सविस्तर वर्णन किया गया है । इसीप्रकार तीर्थंकरादि गंडिकाओं में उनके नामानुसार विषय वर्णन समझ लेना चाहिये
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