Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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सिरि-भगवंत-पुप्फदंत-भूदबलि-पणीदे
छक्खंडागमे
जीवट्ठाणं
तस्स सिरि-वीरसेणाइरिय-विरइया टीका
धवला संपहि संत-सुत्त-विवरण-समत्ताणंतरं तेसिं परूवणं भणिस्सामो। परूवणा णाम किं उत्तं होदि ? ओघादेसेहि गुणेसु जीवसमासेसु पञ्जत्तीसु पाणेसु सण्णासु गदीसु इंदिएसु काएसु जोगेमु वेदेसु कसाएसु णाणेसु संजमेसु दंसणेसु लेस्सासु भविएसु अभविएसु सम्मत्तेसु सण्णि-असण्णीसु आहारि-अणाहारीसु उवजोगेमु च पजचापजतविसेसणेहि विसेसिऊण जा जीव-परिक्खा सा परूवणा णाम । उत्तं च
गुण जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य ।
उवजोगो वि य कमसो वीसं तु परूवणा भणिया ॥२१॥ सत्प्ररूपणाके सूत्रोंका विवरण समाप्त हो जानेके अनन्तर अब उनकी प्ररूपणाका वर्णन करते हैं
शंका-प्ररूपणा किसे कहते हैं ?
समाधान-सामान्य और विशेषकी अपेक्षा गुणस्थानों में, जीवसमासों में, पर्याप्तियों में, प्राणों में, संक्षाओं में, गतियों में, इन्द्रियों में, कार्योंमें, योगोंमें, वेदोंमें, कषायोंमें, ज्ञानों में, संयमोंमें, दर्शनोंमें, लेश्याओंमें, भव्योंमें, अभन्यों में सम्यक्त्वों में, संशी-असंशियोंमें, आहारी-अनाहारियों में और उपयोगोंमें पर्याप्त और अपर्याप्त विशेषणोंसे विशेषित करके जो जीवोंकी परीक्षा की जाती है, उसे प्ररूपणा कहते हैं। कहा भी है
गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संक्षा, चौदह मार्गणाएं और उपयोग, इस प्रकार क्रमसे वीस प्ररूपणाएं कही गई हैं। २१७ ॥
१ गो. बी. २.
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