Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४२२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १. छप्पाण पंच पाण चत्तारि पाण तिण्णि पाण, चत्तारि सण्णाओ, अदीदसण्णा वि अत्थि; चत्तारि गदीओ, एइंदियजादि-आदी पंच जादीओ, पुढवीकायादी छकाया, ओरालियमिस्स-वेउव्वियामिस्स-आहारमिस्स-कम्मइयकायजोगेत्ति चत्तारि जोगा, तिण्णि वेद, अवगदवेदो वि अत्थिः चत्तारि कसाय, अकसाओ वि अत्थि; मणपजवविभंगणाणेहि विणा छण्णाण, चत्तारि संजम सामाइय-छेदोवडावण-जहाक्खादासंजमेहि, चत्तारि दंसण, दव्वेण काउ-सुक्कलेस्साओ, भावेण छ लेस्साओः जम्हा सव्व-कम्मस्स विस्ससोवचओ सुकिलो भवदि तम्हा विग्गहगदीए वट्टमाण-सव्य-जीवाणं सरीरस्स सुक्कलेस्सा भवदि । पुणो सरीरं घेतूण जाव पज्जत्तीओ समाणेदि ताव छव्वण्ण-परमाणुपुंज-णिप्पजमाण-सरीरत्तादो तस्स सरीरस्स लेस्सा काउलेस्सेत्ति भण्णदे', एवं दो सरीरलेस्साओ भवंति । भावेण छ लेस्सेत्ति वुत्ते णरइय-तिरिक्ख-भवणवासिय-वाणवेंतरजोइसियदेवाणमपज्जत्तकाले किण्ह-णील-काउलेस्साओ भवति । सोधम्मादि-उवरिम
त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंकी अपेक्षा क्रमसे सात प्राण, सात प्राण, छह प्राण, पांच प्राण, चार प्राण और तीन प्राण होते हैं। चारों सज्ञाएं होती हैं और अतीत-संज्ञारूप स्थान भी होता है। चारों गतियां होती हैं। एकेन्द्रिय जाति आदि पांचों जातियां होती हैं। पृथिवीकाय आदि छहों काय होते हैं। औदारिकमिश्र, वैक्रियकमिश्र, आहारकमिश्र और कार्मणकाय इसप्रकार चार योग होते हैं। तीनों वेद होते हैं और अपगतवेदप भी स्थान होता है। चारों कषायें होती हैं और कषायरहित भी स्थान होता है। मनःपर्यय और विभंग-ज्ञानके विना छह ज्ञान होते हैं। सूक्ष्मसांपराय, परिहार विशुद्धि और संयमासंयमके विना सामायिक, छेदोपस्थापना, यथाख्यात और असंयम ये चार संयम होते हैं। चारों दर्शन होते हैं । द्रव्यलेश्याकी अपेक्षा कापोत और शुक्ल लेश्या होती है और भावलेश्याकी अपेक्षा छहों लेश्याएं होती हैं। अपर्याप्त अवस्थामें द्रव्यकी अपेक्षा कापोत और शुक्ल लेश्याएं ही क्यों होती हैं, आगे इसीका समाधान करते हैं कि जिस कारणसे संपूर्ण कर्मीका विस्रसोपचय शुक्ल ही होता है, इसलिये विग्रहगतिमें विद्यमान संपूर्ण जीवोंके शरीरकी शुक्ललेश्या होती है। तदनन्तर शरीरको ग्रहण करके जबतक पर्याप्तियोंको पूर्ण करता है तबतक छह वर्णवाले परमाणुओंके पुंजोंसे शरीरकी उत्पत्ति होती है, इसलिये उस शरीरकी कापोत लेश्या कही जाती है । इसप्रकार अपर्याप्त अवस्थामें शरीरसंबन्धी दो ही लेश्याएं होती हैं। भावकी अपेक्षा छहों लेश्याएं होती हैं ऐसा कथन करने पर नारकी, तिर्यंच, भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके अपर्याप्त-कालमें कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं होती हैं। तथा सौधर्मादि ऊपरके देवोंके अपर्याप्त कालमें पीत, पद्म और
१..........सब विग्गहे सुक्का । सबो मिस्सो देही कबोदवण्णो वे णियमा ॥ गो. जी. ४९८.
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