Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादका परिचय
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आगे यह प्रश्न उठाया गया है कि जब दश और चौदह पूर्वियोंको अलग अलग नमस्कार किया तब बीचके ग्यारहपूर्वी, बारहपूर्वी और तेरहपूर्वियों को भी क्यों नहीं पृथक् नमस्कार किया । इसका उत्तर दिया गया है कि उनको नमस्कार तो चौदहपूर्वियों के नमस्कारमें आ ही जाता है, पर जैसा जिनवचनप्रत्यय विद्यानुवाद की समाप्ति के समय देखा जाता है वैसा ही चौदहपूर्वोकी समाप्तिपर पाया जाता है । जब चौदहपूर्वोको समाप्त करके रात्रिमें श्रुत- केवली कायोत्सर्ग से विराजमान रहते हैं तब प्रभात समय भवनवासी, बाणव्यंतर, ज्योतिषी, और कल्पवासी देव आकर उनकी शेखसूर्य के साथ महापूजा करते हैं । इसप्रकार यद्यपि जिनवचनत्वकी अपेक्षासे सभी पूर्व समान हैं, तथापि विद्यानुप्रवाद और लोकबिन्दुसारका महत्त्व विशेष है, क्योंकि यहीं देवोंद्वारा पूजा प्राप्त होती है । दोनों अवस्थाओं में विशेषता केवल इतनी है कि चतुर्दशपूर्वधारी फिर मिथ्यात्व में नहीं जा सकता और उस भवमें असंयमको भी प्राप्त नहीं होता ।
इससे जाना जाता है कि श्रुतपाठियों की विधा एक प्रकारसे दशम पूर्वपर ही समाप्त हो जाती थी, वहीं वह देवपूजाको भी प्राप्त कर लेता था और यदि लोभमें आकर पथभ्रष्ट न हुआ तो 'जिन' संज्ञाका भी अधिकारी रहता था । इससे दिगम्बर सम्प्रदाय में दृष्टिवादके प्रथमानुयोग नामक विभागको पूर्वगत से पहले रखने की सार्थकता भी सिद्ध हो जाती है । यदि पूर्वगतके I पश्चात् प्रथमानुयोग रहा तो उसका तात्पर्य यह होगा कि दशपूर्वियोंको उसका ज्ञान ही नहीं हो पायगा । अतएव इस दशपूर्वीकी मान्यता के अनुसार प्रथमानुयोगको पूर्वोसे पहले रखना बहुत सार्थक है । आगेके शेष पूर्व और चूलिकाएं लौकिक और चमत्कारिक विद्याओंसे ही संबंध रखती हैं, वे आत्मशुद्धि बढ़ाने में उतनी कार्यकारी नहीं हैं, जितनी उसकी दृढ़ताकी परीक्षा कराने हैं ।
भिन्न और अभिन्न दशपूर्वीकी मान्यताका निर्देश नंदीसूत्र में भी है, यथा
इच्छेनं दुवालसंगं गणिपिडगं चोदसपुव्विस्ल सम्मसुअं अभिण्णदसपुव्विस्स सम्मसुअं, तेण परं भिण्णेसु भयणा से तं सम्मसु ' (सू. ४१ )
टीकाकारने भिन्न और अभिन्न दशपूर्वीका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है
इत्येतद् द्वादशांग गणिपिटकं यश्चतुर्दश पूर्वी तस्य सकलमपि सामायिकादि बिन्दुसार पर्यवसानं नियमात् सम्यक् श्रुतं । ततो अधोमुखपरिहान्या नियमतः सर्वं सम्यक् श्रुतं तावद् वक्तव्यं यावदभिन्नदशपूर्विणः - सम्पूर्णदश पूर्वधरस्य । सम्पूर्णदश पूर्वधरत्वादिकं हि नियमतः सम्यग्दृष्टेरेव, न मिथ्यादृष्टेः, तथा स्वाभाव्यात् । तथाहि यथा अभव्यो ग्रंथिदेशमुपागतोऽपि तथा स्वभावत्त्वात् न ग्रंथिभेदमाधातुमलम्, एवं मिथ्यादृष्टिरपि भुतमवगाहमानः प्रकर्षतोऽपि तावदवगाहते यावत्किश्चन्न्यूनानि दशपूर्वाणि भवन्ति, परिपूर्णानि तु तानि नावगाढुं शक्नोति तथा स्वभावत्वादिति । ' इत्यादि
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