Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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पृष्ठ
२७
६८
इन सबकी दशाका
११० १३ [हिं.] निर्गुण ही है
१०३ ६ [ हिं . ]
(पुस्तक - १ )
अशुद्ध
पंक्ति
२ [हिं.] पीले सरसों
७ [ हिं . ] हम दोनों
१३८ १९ [हिं.] नामकर्मका
उदय
१७५ ३ [ मूल ] नान्यन्तरेण १८२ ११ [हिं.] ११वीं पंक्तिसे
आगे
२४०
39
३१८
शुद्धि पत्र
शुद्ध
श्वेत सरसों
हम दोनों
७ [हि ] अपेक्षा पर पदार्थ से भी २ [मूल] - मिति १ [हि ] चाहिये |
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पृष्ठ
४२१ २
४२८ ८
४३१ ६
केई
४४३ २० [हिं] और संयतानिर्गुण ही है, संयतोंके सर्वगत ही है, ४४६ ६ [हिं] होते हैं ।
साधु इन दशका
नामकर्मका सत्त्व तान्यन्तरेण
X
समाधान-नहीं; क्योंकि, क्षपक और उपशमक जीवोंके होनेवाले उन परिणामों में ५६९ ३ अपूर्वश्व के प्रति समानता पाई जाती है इससे | ५७० उनमें एकता बन जाती है ।
८
२३०
x शंका- क्षपक श्रेणी में होनेवाले परिणामोंमें कमका क्षपण कारण है. और उपशमश्रेणीमें होनेवाले परिणामोंमें कर्मोंका उपशमन कारण है, इसलिए इन भिन्न भिन्न परिणामोंमें एकता ५०६ नं. १०४ स. कैसे बन सकती है ?
६
पंक्ति
अपेक्षा भी पर पदार्थसे
५ [हि ] पूर्ण होनेकी पूर्ण नहीं होनेकी
(पुस्तक - २ ) अशुद्ध
४५० ९ [हिं] कृतत्यकृवेदकतिहिं
४५३
८
४५९ २२
मिथ्यादृष्टि
छब्भेदं ट्ठिदा
तिण्णिवेद
संदजा संजदा बुंदयवेद ५९२ २ (टि.) पाउव्युतक्रमः ७५२ नं.३९८
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द.
१
शुद्ध
छभेट्टिदा तिष्णि वेद
ई
संयतासंयत और संयतोंके
होते हैं । यह
प्राण अल्प
प्राण है या
अप्रधान है ।
कृतकृत्यवेदक
तीहिं
मिथ्यादृष्टि
सामान्य
स.
१
संजदासंजदा
बुंसयवेद
-मिति ।
१६
१५
चाहिये । अर्थात् २ (परि. १) (परि. भा. २) (परि. भा. २) वनस्पतितक के जीवों के स्पर्शनेन्द्रिय होती है।
१६ एक ६ (परि. २) ९
पाठव्युत्क्रमः
द.
३
२२८ लेस्सा य दव्वभावं ७८८ (पिंडिका ?)
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