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छत्तीसवां वोल-२१
लिया जाता है ।
क्षत्रियपुत्र की माना सच्चो क्षत्रियाणी थी। उसका हृदय तुच्छ नही विशाल था । माता ने पुत्र से कहाबेटा, अब इसे शत्रु नही भाई समझ ।
जब वह शरण मे आ गया है, तो शरणागत से बदला लेना सर्वथा अनुचित है । शरण मे आया हुआ कितना ही बडा अपराधी क्यो न हो, फिर भी भाई के समान ही है । अतएव यह तेरा शत्रु नही, भाई के सम न हो है । मैं प्रभी । भोजन बनातो हू । तुम दोनो भाई साथ बैठ कर आनन्दपूर्वक जीमो । तुम सगे भाइयो को तरह साथ-साथ जीमो और प्रेमपूर्वक रहो । मैं यहा देखना चाहती हूँ।
माता का कथन सुनकर पुत्र ने कहा-माताजी ! तुम पितृघ तक शत्रु को भी भाई बनाने को कहती हो, सो तो ठीक है, परन्तु मेरे हृदय मे जो क्रोधाग्नि जल रही है, उसे मैं किस प्रक र शान्त करू ?
माता ने उत्तर दिया--पुत्र ! किसी मनुष्य पर क्रोध उतार कर क्रोध शान्त करने मे कोई वीरता नही है । क्रोध पर ही क्रोध उतार कर क्रोध शान्त करना अथवा क्रोध पर विजय प्राप्त करना ही सच्चो वीरता है । भगवान् महावीर ने तो कहा है--'उवसमेण हणे कोह ।' अर्थात् उपशमशान्ति से क्रोध को जीतना चाहिए । इसी प्रकार बौद्धशास्त्र मे भी कहा है.--
न हि वरेण वेराणि समन्तीध कुदाचन । . : अवेरेण वेराणि एस धम्मो सनन्तनो ॥
अर्थात् इस संसार मे वैर से वैर कदापि शान्त नही