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छत्तीसवां बोल-१६
लगा-आज मेरी माता मेरी पराक्रमगाथा सुनकर अवश्य प्रसन्न होगी। घर पहचते ही वह सीधा माता को प्रणाम करने और उसका आशीर्वाद लेने गया । पर जब वह माता के पास पहुचा तो उसने देखा-माता रुष्ट है और पीठ देकर बैठी है । माता को रुष्ट और क्रु द्ध देखकर पुत्र विचार करने लगा मुझमे ऐसा कौन-सा अपराध बन गया है कि माता रुष्ट और क्रुद्ध हुई है ?
आजकल का पुत्र होता तो माता को मनचाहा सुना देता । परन्तु उस क्षत्रियपुत्र को तो पहले से ही वीरोचित्त शिक्षा दी गई थी कि. -
मातृदेवो भव । पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव ।
। अर्थात् -माता देवतुल्य है, पिता देवतुल्य है और आचार्य देवतुल्य है । अतएव माता, पिता और आचार्य की प्राजा को अवज्ञा नहीं करनी चाहिए।
यह सुशिक्षा मिलने के कारण क्षत्रियपुत्र ने नम्रतापूर्वक माता से कहा - मां, मुझ से ऐसा क्या अपराध बन गया है कि आप मुझ पर इतनी क्रुद्ध हैं ? मेरा अपराध मुझे बताइए, जिससे मैं उसके लिए आपसे क्षमायाचना कर सकू ।
माता बोली- जिसका पितृहन्ता शत्रु मौजूद है उसने यदि दूसरे शत्रु को जीता भी तो इससे क्या हुआ ?
क्षत्रियपुत्र ने चकित होकर पूछा-क्या मेरे पिता का घात करने वाला शत्रु अभी तक जीवित है ?
माता-हा, वह अभी तक जीवित है ? क्षत्रियपुत्र-ऐसा है तो अभी तक मुझे बताया क्यो नही ? माता-मैं तुम्हारे पराक्रम की जाच कर रही थी।