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की। तुम्हारे बरताव से, तुम्हारे इस तरह के चाल-चलन से, मुझे लज्जा से सर झुकाना पड़ा। मेहरबानी करके आइन्दा मुझसे कोई बात न कहो। मैं तुम्हारी बातों को नहीं सुनूँगी। तुम्हारे यहाँ आने से गड़बड़ी होगी, यह जानकर ही आचार्यजी ने तुम्हें डाँटकर छोड़ दिया और आने से मना कर दिया था। फिर भी इस तरह दखलन्दाजी करके, हथकड़ी पहनाये जाने तक...मुझे और अधिक अपमानित मत कसे। अब तुम्हारा यहाँ से चले जाना ही अच्छा है।" लक्ष्मीदेवी ने कहा।
घण्टी बजी। नौकरानी अन्दर आयी, प्रणाम किया और "सिन्दगरे से पूर्व महाराज की रानियाँ मिलने आयी हैं," कहकर आदेश की प्रतीक्षा में खड़ी रही।
"मैं खुद दर्शन करने जाऊँगी। वे तो ज्येष्ठा हैं।" लक्ष्मीदेवी ने उठते हुए कहा। "वे यहीं आ गयी हैं। और द्वार पर प्रतीक्षा कर रही हैं।"
लक्ष्मीदेवी उठकर जल्दी-जल्दी द्वार के पास गयी, कहा, "पधारिए, कब आना हुआ? मुझे मालूम ही नहीं चला! खबर भेजती तो मैं स्वयं सेवा में आ पहुँचती।" कहकर उन्हें साथ विश्रामागार में ले आयी।
उन्हें उचित आसनों पर बिठाकर खुद भी एक आसन पर बैठ गयी। "ये मेरे पिता हैं," कहकर तिरुवरगदास का परिचय दिया।
रानियों ने मुस्कराते हुए नमस्कार किया। उसने भी जवाब में नमस्कार किया। "बहुत दिनों बाद ही सही, आप आयीं तो! बहुत खुशी की बात है। ठीक धक्त पर ही आना हुआ। सुना कि आप लोगों को उदयादित्यरस जी के साथ आना था? आयी होती तो यहाँ इधर जो कुछ हुआ सो आँखों से देख सकतीं और सुन भी सकतीं।" तिरुवरंगदास ने किस्सा शुरू किया।
"हमारा क्या है ? हमारा जमाना ही गुजर गया। बहुत भारी विजय हुई है; चोलों से गंगवाड़ी की विजय के इस महोत्सव के सन्दर्भ में आकर आशीर्वाद देने के लिए हमारी पट्टमहादेवी ने जोर दिया तो हम आ गये। एक साथ दोनों काम हो जाएँगे। एक सो अपने पुराने लोगों से मिलना भी होगा और नवागतों से भी परिचय हो जाएगा। देखिए, हमारे राजघराने को सभी रानियाँ, हमारे मूलपुरुष सळमहाराज से लेकर हमारे विवाह तक, सभी जिनभक्त हो रहीं। अब समय बदल गया है। हमारे वर्तमान महाराज स्वर्य आपके मत के अनुयायी बने हैं। साथ ही अपने नये मत की इन छोटी रानी से पाणिग्रहण किया है। इस सबको जानने का कौतुहल उत्पन्न हो गया तो आ गयीं। तो आप यहीं, राजमहल में ही रहते हैं ?" पद्यलदेवी ने एक छोटा-सा भाषण ही दे डाला।
"नहीं, मैं तो यादवपुरी में रहा करता हूँ। अभी इस उत्सव के लिए आया हूँ। आमन्त्रितों के लिए बने निवासों में से एक में अकेला ही रहता हूँ। पूजा-अर्चना आदि के लिए हमें कुछ स्वतन्त्रता चाहिए। हमारा स्नान-पान, पूजा-पाठ आदि का राजमहल के वातावरण में होना कुछ पुश्किल है।"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 29