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तो उससे बिल्कुल उल्टे हैं। लोकहित के अलावा और कुछ सोचते ही नहीं।" "ऐसा था तो आप भी मतान्तरित हो सकती थीं न?"
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'उनकी योग्यता को आँकना, पसन्द करना और बात है। मतान्तरित होना दूसरा ही विषय है। इन दोनों का कोई सम्बन्ध नहीं। जब आप लोग देखेंगी तभी समझेंगी।" " वे नहीं आ रहे हैं न?"
"उनके लौटने पर देख सकती हैं।"
" सो पता नहीं कब लौटेंगे।"
"उसके लिए समय है। मुझे आज्ञा हो।" उठकर शान्तलदेवी चामलदेवी का हाथ दबाकर, बोप्पिदेवी की पीठ सहलाकर चली गयीं।
फिर बहनों ने अपनी आवश्यकताएँ नौकरानियों को जता दीं। अन्तःपुर में अपनेअपने निवासों की अच्छी व्यवस्था करा लीं। शान्तलदेवी ने उनसे परिचित सेवकसेविकाओं को ही इस काम के लिए नियुक्त किया था।
शाम को जब देवी, रानी देवी और राजदेया अन्तःपुर के कार्यों को सँभालने के लिए चली गर्यो, तब यह मानकर कि अन्तःपुर में रानी लक्ष्मीदेवी अकेली होंगी, तिरुवरंगदास किसी तरह सीधा रानी के विश्रान्तिगृह में जा पहुँचा ।
रानी लक्ष्मीदेवी ने सुबह के कार्यकलापों को देखने के बाद निश्चय कर लिया था कि किसी भी बात में हस्तक्षेप नहीं करेगी। राज्य संचालन तो रसोई तैयार कर भगवान् को भोग लगाना नहीं, उसके लिए बड़ी अक्ल चाहिए और दूर दृष्टि भीयह वह जान गया थी। उसके पोषक पिता ने जो बातें कही थीं उनको सुनकर वह प्रभावित हुई थी और गत रात को महाराज से जो बातें उसने की थीं, उन्हें मन-हीमन दुहराया और सुबह सभा में जो कार्य-कलाप हुए थे उनके साथ तौलकर देखा । लगा कि वास्तविकता कुछ और है। बातों को रंगकर कहा गया कुछ और ही । वास्तव में एक दिन स्थपति को एकान्त दर्शन देते समय, किसी और का प्रवेश न होने पर भी, यह शंका निराधार हैं, जानकर भी पिता की बात पर क्यों विश्वास किया? रात को शिकायत क्यों की? महाराज ने इन सब बातों को पट्टमहादेवी जी से अवश्य ही कहा होगा। मैं किस मुँह से उनके सामने जाऊँगी ? आचार्य जी के मना करने पर भी पिताजी को क्यों आना चाहिए था ? मुझे इस तरह अपमानित कराना चाहिए था ? महासन्निधान के मन में मेरे पिता के विषय में पहले से ही सद्भावना नहीं है, यह देख रही हूँ। अब तो रहा-सहा भी खतम हो गया। मील-भर दूर से ही दिखाई दे, ऐसा तिलक लगाने बाले को बात जब उन्होंने कहीं, तब मुझे यह साफ लगा कि यह इशारा मेरे पिता की ही ओर है। तब तो बात ही खतम हो गयी। मैं भी सुखी हूँ। उन्हें भी कोई कमी नहीं। ऐसी हालत में ये सब कार्रवाई क्यों ? यह सब सोचकर वह अपने पिता से कह देना चाहती थी कि दो-चार दिन चुपचाप पड़े रहकर गौरव के साथ यादवपुरी लौट जावें ।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार : 27