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नौकरानी ने आकर कहा, "धर्मदर्शी जी दर्शन के लिए आये हैं।" उन्हें अन्दर बुलवाया। उसने निर्णय कर लिया था कि अभी उन्हें समझाकर स्पष्ट कह दें।
तिरुवरंगदास अन्दर आया, बेटी को देखा। हमेशा की तरह उसने उसकी ओर नहीं देखा। उसने समझा कि सुबह की सभा में उसको आशा के अनुरूप सफलता नहीं मिली है, इसलिए वह परेशान है। बेटी के पलंग के पास एक आसन खींचकर वहाँ बैठ गया। दरवाजे की ओर देखा। वह बन्द था।
"किसलिए परेशान हो, बेटी ? शुरू-शुरू में सब ऐसे ही कष्टकर मालूम पड़ता है, दुखदायक लगता है। परन्तु श्री आचार्यजी के काम की जिम्मेदारी जिनके ऊपर है उन्हें कभी पीछे नहीं हटना चाहिए। मैं कहाँ-कहाँ का पानी पी चुका हूँ, यह तुमको भी मालूम नहीं। मैं जैसा कहता हूँ वैसा चलकर देखो। तुम्हारे गर्भ से जो उत्पन्न होगा उसे ही सिंहासनारूढ़ होना चाहिए, ऐसा कर दूंगा।"
लक्ष्मीदेवी ने गरम होकर उसकी ओर देखा और कहा, "पिताजी, ऐसा मत करो कि मुझे भी गुस्सा आ जाए। चुपचाप दो-चार दिन रहो, फिर यादवपुरी चले जाओ। अभी जितना अपमान मेरा हुआ है, वह काफी है।"
"क्या अपमान हुआ बेटी? किसी ने तुम्हारे बारे में कुछ कहा?"
"कहा नहीं, सच है । परन्तु किसी ने मेरी परवाह भी तो नहीं की। एक भी बात कहने के लिए मौका नहीं मिला 1"
"बोलना चाहिए था। मैं सोच रहा था कि तुम गंगी की तरह क्यों बैठी हो। जब पट्टमहादेवी से कहा गया कि अपनी जगह छोड़कर अन्यत्र बैठे, तब उसका चेहरा तुमने देखा? इतनी बड़ी सभा में किसी को भी साहस नहीं हुआ कि कहे, ऐसा नहीं होता चाहिए ! फिर भी जैन जैन ही तो हैं। उस प्रधान के अहंकार को तुमने नहीं देखा? वह महाराज को ही उपदेश दे रहा था न कि पट्टमहादेवी को उन्हीं के स्थान पर होना चाहिए! ऐसा भी हो सकता है बेटी? हमारे चोलराज्य में ऐसा हुआ होता तो उसकी जीभ काट दी जाती..."
"हाँ हाँ, इसी से डरकर न आचार्य पोय्सल राज्य में भाग आये!''
जाने दो बेटी । तुम्हीं अगर यह कहने लगी तो फिर यहाँ आचार्य के पन्थ का विकास भी कैसे होगा? उन्होंने तुमको रानी बनाया तो वह इसलिए नहीं कि तुम गद्दी पर आराम से इतराती बैठी रहो। उन्होंने इस पद पर बिठाया, इसका ऋण तुम्हें चुकाना होगा।"
"वे स्वयं बताएं कि उन्हें क्या चाहिए, मैं उसे पूरा करूँगी। दूसरों को माध्यम बनाया जाए, यह मैं नहीं चाहती।"
"तो क्या मैं तुम्हारे लिए गैर हो गया?" "नहीं, परम आत्मीय, रक्षक हो । इसीलिए वैरियों के गुप्तचर से मित्रता स्थापित
28 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग बार