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सब मिल-जुलकर रहें तो एक-दूसरी तरह की मनःशान्ति पा सकेंगी-यही उनकी भावना है।" मायण ने कहा।
__ 'हाँ, इन सब विचारों को तुमसे कहने का प्रयोजन क्या है ? इतनी आजादी
"उन्होंने मुझसे कुछ कहा नहीं। मैं क्या चीज हूँ। मेरे ऊपर उन्होंने अपरिमित वात्सल्य रखा है। दिल खोलकर बात करती हैं। वे जो कहती हैं वह हमारे लिए मार्गदर्शक है, इतना ही। इन सारी बातों को उन्होंने मेरी पत्नी से किसी प्रसंग में कहा है। उसी से मुझे थोड़ी-बहुत बातें मालूम हुई।"
'तो मतलब हुआ कि तुम्हारी पत्नी पट्टमहादेवी की अन्तरंग दासी है।"
"उन्होंने हम पर जो वात्सल्य रखा है, आमरण उसे बनाये रखने की सुबुद्धि हमें ईश्वर दे-यही प्रार्थना है। हम उनके अपने हैं, यह कहें तो गलत होगा।''
"तुम्हारी पत्नी कौन है?". "चट्टलदेवी।" "हो तुम..." "मायण।'' "तो तुम्हारा पारिवारिक जीवन ठीक चलने लगा है।" "जब तक अकल ठोक रहेगी तब तक अच्छा ही रहेगा।" "सो तो है। मैंने तो वह सब पाया नहीं।''
"अभ्यास करने की सहनशक्ति हो तो पूर्वपुण्य का फल उसी सहनशीलता से प्राप्त हो जाता है। मैंने उस सहनशक्ति को खोया था, जीवन दुःखमय हो गया था। सहन करते हुए विवेक के साथ व्यवहार किया. जीवन सुखमय बन गया।''
"तुम ही भाग्यवान् हो। जिसने तुम्हारे जीवन को नरक सदृश बनाया उसी ने मेरे जीवन में आग लगा दी।"
"उसके षड्यन्त्र का पता लगाकर चट्टलदेवी ने ही महाराज बल्लालदेव को बचाया था न?"
"फिर भी मेरे भाग्य में यही होना था।" "यों चिन्ता में घुलती रहेंगी तो क्या साधा जा सकता है?" "जीवन ही जब बिखर गया है तो उसका लक्ष्य भला क्या होगा?'।
"महारानी पढ़ी-लिखी हैं, मैं क्या बताऊँ? आपने जो विद्या सीखी है उसी का यदि दान करें तब भी एक लक्ष्य की साधना हुई। विद्यादान से एक विशेष तृप्ति मन को मिलेगी-पट्टमहादेवी जी ने ऐसा कई बार कहा।"
"वे क्या करती हैं?" "लड़कियों को पढ़ाने के लिए शाला खोल रखी है। संगीत, नृत्य,
30 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन