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"नहीं। बड़े राजकुमार की वर्धन्ती के अवसर पर जो आर्थी, तब से वहीं ठहरी हैं।"
"मेरी भी आने की इच्छा थी। परन्तु मेरा स्वास्थ्य ही ठीक न रहा। यहाँ कौन है? न आगे नाथ, न पीछे पगहा । मैं भी नाम भर के लिए रानी हूँ।" औचित्य की सीमा से परे होकर बोलने लगी पद्मला।
पत्रवाहक स्वयं मायण था। लगता है, पद्मलदेवी ने उसको एक साधारण पत्रवाहक हरकारा ही माना हो। मायण से कहा गया था कि किसी भी तरह से समझा-बुझाकर उन्हें ले ही आए।
इसलिए उसने बताया, "वहाँ राजमहल में सबको रानी जी ही की चिन्ता लगी रहती है। अकेली रहती हैं । यहाँ आकर रहने के लिए विनती करने पर भी मान नहीं रही हैं। महाराज बल्लालदेव पर उनकी प्रम-निष्ठा कौन नहीं जानता? यहाँ आने पर वे पुरानी सब बातें याद आ जाएँगी, शायद इसलिए आ नहीं रही हैं । आ जाएँ तो उन्हें भी तनहाई महसूस नहीं होगी।' यो जब-तब पट्टमहादेवी जी कहा करती हैं।"
"यह सब दिखावटी है। बेचारे तुम नौकर क्या जानो।"
"न, न, उनके विषय में ऐसी बातें कभी उचित न होंगी। मैं उन्हीं का नौकर हूँ, वे कभी मुझसे भी चिढ़कर बात नहीं करती। सबके प्रति वे गौरव की भावना रखती हैं। सबके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करती हैं। सबसे सहानुभूति रखती हैं। सदा सर्वदा वे सबकी भलाई ही चाहती हैं, अन्यथा नहीं।"
"हो सकता है। हम तो ऐसा भाग्य लेकर जनी नहीं। मेरा भाग्य छीनकर भगवान् ने उसके हाथ में रख दिया। उसे इस तरह का भेद-भाव क्यों? मालूम
"इतनी बड़ी बात का समाधान अल्पमति हम क्या दे सकेंगे? मेरी बात पर विश्वास करेंगी तो कहूँ। उन्हें या सन्निधान को इस पद की कोई इच्छा ही नहीं थी। एक बार भी नहीं। यह बात उन्होंने कई बार स्पष्ट कही है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया-आपके पुत्र नरसिंहदेव ईश्वर की कृपा से बचे रहते तो शासन चलाने के बदले सेवा करके हम तृप्त रह सकते थे। हमें वह भाग्य नहीं मिला। अब हमारे मन में इतना दु:ख है तब समझ सकते हैं कि महारानी पद्मलदेवी को कितना भारी दुःख होगा। उधर बेटे को इधर पति को-दोनों को खोकर अकेली रहकर जीवन बिताना साधारण बात है? किसी कुसमय में कुछ हो गया तो! स्वयं को ही उसका कारण मानकर महारानी पगलदेवी दूर रह रही हैं। इस दुनिया में सम्भव होनेवाली कई बातों के लिए हम अपने को कारण मान लेते हैं। मगर वास्तव में हम कारण नहीं होते। विधिरचित व्यूह में प्रासंगिक रूप से हम फंसे हुए हैं-इतना ही। इस तथ्य को न समझकर दु:खी होना मानव का स्वभाव है। महारानीजी की भी यही दशा है।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 29