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इनमें से अन्तिम तीन रचनाएँ संस्कृत भाषा में तथा प्रथम सात रचनाएँ अपभ्रंश भाषा में निबद्ध हैं । अन्तर्बाह्य साक्ष्यों के आधार पर तथा उनकी प्रशस्तियों आदि में अंकित उनके रचनाकालों को ध्यान में रखते हुए यह स्पष्ट विदित हो जाता है कि उन अन्तिम तीनों (क्रम सं. 8-10 तक) कृतियों के लेखक बुध श्रीधर भिन्न-भिन्न हैं। क्योंकि उनकी प्रशस्तियों तथा अन्य स्रोतों के अनुसार उनका रचना काल वि.सं. की 14वीं सदी से 17वीं सदी के मध्य है, जो कि प्रस्तुतपासणाहचरिउ के रचनाकाल (वि.सं. 1189) से लगभग 200 वर्षों के बाद की हैं। अतः उनका परस्पर में किसी भी प्रकार का मेल नहीं बैठता ।
बुध श्रीधर की रचनाओं का रचना-क्रम एवं रचनाकाल
बुध श्रीधर कृत 'पासणाहचरिउ' एवं 'वड्ढमाणचरिउ' की प्रशस्तियों के अनुसार इन दोनों (अर्थात् प्रथम एवं द्वितीय) तथा 'चंदप्पहचरिउ', 'संतिणाहचरिउ', 'सुकुमालसामिचरिउ' एवं 'भविसयत्त कहा' के लेखक बुध अथवा विबुध श्रीधर अभिन्न सिद्ध होते हैं ।
'सुकुमालसामि चरिउ' रचना की प्रशस्ति के अनुसार उसकी 1200 ग्रन्थाग्र प्रमाण रचना कवि बुध श्रीधर ने वलडइ ग्राम के चौबीसी जिनमन्दिर में बैठकर वि.सं. 1208 की अगहन मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया सोमवार के दिन समाप्त की थी ।
भविसयत्तकहा की अन्त्य - प्रशस्ति के अनुसार कवि ने उसकी रचना वि.सं. 1230 में की थी । उसने लिखा है कि चन्दवार नामक नगर में स्थित माथुर कुलीन नारायण के पुत्र तथा वासुदेव के बड़े भाई सुपट्ट ने कवि श्रीधर से कहा कि हे कवि, आप मेरी माता रुप्पिणी के निमित्त पंचमीव्रत फल सम्बन्धी " भविसयत्त कहा" कि प्रणयन कर दीजिए ।
'भविसयत्तपंचमीचरिउ' (सं. 7) का रचनाकाल उसकी अन्त्य प्रशस्ति के अनुसार वि. सं. 1530 (पंचदह जि सय फुडु तीसाहित्य) है । अतः उसका लेखक उक्त पासणाहचरिउ के लेखक से स्पष्टतः ही भिन्न है।
इस प्रकार समग्र रूप में महाकवि बुध अथवा विबुध श्रीधर की रचनाओं का रचना - क्रम निम्न प्रकार सिद्ध होता है— 1. चंदप्पहचरिउ ( अनुपलब्ध), 2. संतिणाहचरिउ (अनुपलब्ध), 3. पासणाहचरिउ ( प्रकाश्यमान् ), 4. वड्ढमाणचरिउ, 5. सुकुमालसामिचरिउ (वि.सं. 1208, अप्रकाशित), 6. भविसयत्तकहा (वि.सं. 1230, अप्रकाशित) ।
उक्त तथ्यों से विदित होता है कि प्रस्तुत पासणाहचरिउ के प्रणेता महाकवि बुध श्रीधर ने उक्त ग्रन्थों की रचना वि.सं. 1189 से वि.सं. 1230 के मध्य लगभग 41 वर्षों में की थी' ।
पारिवारिक परिचय
पासणाहचरिउ की प्रशस्ति में बुध श्रीधर ने अपने पिता का नाम गोल्ह एवं माता का नाम वील्हा बतलाया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपना अन्य किसी भी प्रकार का पारिवारिक परिचय नहीं दिया है।
'पासणाहचरिउ' की समाप्ति के लगभग एक वर्ष बाद प्रणीत अपने 'वड्ढमाणचरिउ '' में भी उन्होंने अपना मात्र उक्त परिचय ही प्रस्तुत किया है। वे गृहस्थ थे अथवा गृह-विरत त्यागी, इसकी कोई भी चर्चा उन्होंने नहीं की ।
1. रचनाओं के विशेष परिचय के लिये मेरे द्वारा सम्पादित तथा भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित (1975 ई.) वड्ढमाणचरिउ की भूमिका देखिये ।
कवि की कुछ प्रतियों में बुध तथा कुछ में विबुध विशेषणों के उल्लेख मिलते हैं। वस्तुतः वे दोनों कवि श्रीधर के ही विशेषण हैं।
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दे. वड्ढमाणचरिउ भूमिका पृ. 10-11
दे. वड्ढमाणचरिउ भूमिका पृ. 10-11
प्रस्तावना :: 29