________________ द्वितीयसर्गः होने से अर्थान्तरन्यास अवश्य है, 'यथा यथार्थता' में उपमा है, इस तरह यहाँ उक्त तीन अलंकारों की संसृष्टि है / 'रार्थता' 'यार्थता' में 'प्रार्थता' को तुक बन जाने से पदान्त-गत अन्त्यानुप्रास का 'र्थता' 'र्थता' वाले यमक के साथ एकवाचकानुप्रवेश सकर, तथा अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। तव वर्त्मनि वर्ततां शिवं पुनरस्तु त्वरितं समागमः। अयि ! साधय साधयेप्सितं स्मरणीयाः समये वयं वयः ! // 62 // अन्वयः-हे वयः ! तव वर्त्मनि शिवं वतंताम् ; त्वरितम् पुनः समागमः अस्तु; अयि ! माधय, ईप्सितम् साधय, समये वयम् स्मरणीयाः। टीका-हे वयः पक्षिन् (हंस,) तब ते वर्मनि मार्गे शिवं कल्याणं वर्ततो जायताम् , 'शुमास्ते सन्तु पन्थानः' इत्यर्थः, त्वरितं शोधं पुन: मुहुः समागमः मया सह ते मेलनम् अस्तु भवतुः; अयि ओ मित्र ! साधय गच्छ; ईप्सितं ममामिलषितं दमयन्तीलामरूपं साधय सम्पादय; समये यथाकालं वयं स्मरणोया: स्मृतावानेयाः // 62 // ___ व्याकरण--ईप्सितम्/ प्राप्+सन् + क्तः ( कर्मणि ) / वयम् एकवचन के स्थान में 'अस्मदो द्वयोश्च' ( 3 / 2 / 59 ) से बहुवचन / अनुवाद-हे पक्षी ( हम ), तुम्हारे मार्ग में मङ्गल हो; शीघ्र ही फिर ( हमारा ) मेल हो; ओ मित्र, जाओ; मेरा मनोरथ सिद्ध करो; समय पर हमारी याद रखना // 62 // टिप्पणी-इस श्लोक के सम्बन्ध में विद्वानों में यह बात प्रचलित है कि श्रीहर्ष जब अपने 'नैषधीयचरितम्' को लेकर पण्डितों को दिखाने हेतु काश्मीर गए हुए थे, तो वहाँ इसे उन्होंने अपने मामा मम्मट को भी दिखाया। उन्होंने यह पुस्तक खोली, तो उनकी दृष्टि में पहले इसी श्लोक वाला पृष्ठ आया। देखा, तो बोल उठे-'भानजे, यदि तुम्हारी यह कृति मुझे पहले देखने को मिलती तो अपने 'काव्यप्रकाश में दोषों के उदाहरणार्थ मैं तुम्हारे इसी ग्रन्थ को लेता! उन्होंने उक्त श्लोक को अन्वय और सन्धि में अमङ्गलवाचकत्व दोष का उदाहरण बताया, जैसे-'तक वर्मनि वर्ततां शिवम्' में 'तव शिवं वर्म निवर्तताम्' 'तेरा शिवमार्ग हट आए' अर्थात् अमङ्गल हो; "पुनरस्तु त्वरितं समागम:' में 'स्वरितं पुनः स आगमो माऽस्तु' तुम्हारा यह मिलना फिर न हो; 'अयि साधय साधयेप्सितम्' में 'अरे मेरे मनोरथ को समाप्त कर दो, समाप्त कर दो; 'समये वयं स्मरणीयाः' में समये-समयेऽस्माकं स्मरणं कर्तव्यम् =मर जाने पर कभी कभी हमारी याद किया करना'। मम्मट ने अन्यत्र मी बड़े दोष निकाले / तमो से 'नैषधीयचरितम्' के सम्बन्ध में यह लोकोन्ति चल पड़ो-'दोषाकरो नैषधम् / इस श्लोक में राजा द्वारा हंस को आशीष दी जा रही है, इसलिए आशी अलंकार है / 'साथ' 'साध' में यमक और उसका 'साधय' 'साधये' में छकानुप्रास के साथ एकवाचकानुप्रवेश संकर है, 'वत्' 'वर्त' तथा 'वयं' 'वय' में भी छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। इति तं स विसृज्य धैर्यवान्नृपतिः सनृतवाग्बृहस्पतिः / अविशद्वनवेश्म विस्मितः स्मृतिलग्नः कलहसशंसितैः / / 63 //