________________ चतुर्थसर्गः 205 टीका-इयम् दमयन्ती स्वस्यां आत्मनि निवसति तिष्ठतीति तथोक्तस्य ( उपपद तत्पु०) स्वकायस्येत्यर्थः विरहस्य वियोगस्य रहस्यम् तत्त्वम् अनलस्य अग्नेः भावम् अग्नित्वमित्यर्थः (10 तत्पु.) न अबुध्यत न शातवती मद्गतविरहोऽनलः (अग्निः ) अस्तीति तत्वतः सा नाजानादित्यर्थः यत् यत्तः तत्र तस्मिन् विरहानले ज्वलति दीप्यमाने सति सा असून प्राणान् तृखानि विधाय तृष्पीकृत्य प्रशमनाय उपशमनार्थम् उजिमतुम् त्यक्तुम् ऐहत ऐच्छत् / विरहस्याग्निवेन तस्या शानमभविष्यत् चेत् , तर्हि सा प्राणरूपतृपानि तन्निर्वापणार्थ 'तत्रोज्झितुं' नैहिष्यत, तृणः वह्निः दीप्यते, न तु शाम्यतीति भावः। अथ च इयम् स्वनिवासिनो विरहस्य अनलभावम् नलस्य भावः सद्भावः प्राप्तिरित्यर्थः (10 तत्पु०) न नलमाव इत्यनलमावः ( नञ् तत्पु०) नलप्राप्त्यमाव इत्यर्थः रहस्यं मूलकारणं न अबुध्यत ? अपि तु अबुध्यतैव, मम विरहरहस्यं नळाप्राप्तिरस्तोति सा अबुध्यत इत्यर्थः। तत् यतः तत्र ज्वलति तस्मिन् विरहे विद्यमाने सति स्वप्राणान् तृणीकृत्य प्रशमनाय प्रकृष्टाय शमनाय यमायेति यावत् ('शमनो यमराड यमः' इत्यमरः) त्यक्तुमैच्छत् , नलस्य विरहो ममासह्य इति मत्वा सा प्राप्पात परित्यक्तुमैच्छदिति भावः // 22 // __ग्याकरण-निवासिन् नि+/वस्+पिन् (ताच्छील्ये ) / रहस्यम् रहसि मवमिति रहस्+यत्। ऐहत/ई+लङ / अनुवाद-यह ( दमयन्ती) अपने में विद्यमान विरह का रहस्य न समझ पाई कि यह अग्नि है। तमो तो उस ( अग्नि ) के जलते हुए वह उसे बुझाने हेतु प्राप्यों को तप्प बनाकर झोंकना चाहती थी। यह ( दमयन्ती ) क्या अपने विरह का रहस्य-तत्व अथवा मूलकारण-नहीं जानती थी कि यह नल की अप्राप्ति है ? तभी तो उसके रहते हुए वह प्राणों को तृणवत् तुच्छ समझकर यम को सौंपना चाहती थी) // 22 // टिप्पणी-यहाँ भी कवि ने वाक्-छल का प्रयोग किया है। शब्दों में श्लेष रखकर उनके दो-दो अर्थ करके उनका आपस में अमेदाध्यवसाय कर रखा है। इसीलिए विद्याधर और चारित्र. वर्धन ने अपनी टीकाओं में यहाँ अतिशयोक्ति मानो है। अतिशयोक्ति के साथ-साथ पहले के अर्थ में अनुमानालंकार भी हैं, क्योंकि प्राणों को अग्नि में तृष्ण की तरह झोंकने के प्रयत्न से यह अनुमान किया जा रहा है कि उसे विरह में अग्निस्त्र का ज्ञान नहीं था। अग्नि बुझाने हेतु तण डालने में विरोधालंकार भी है। इस तरह यहाँ इन सबका संकर समझिए। हमारे विचार में यह श्लेषालंकार है। शब्दालंकारों में 'रहस्य' 'रहस्य' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। प्रकृतिरेतु गुणस्स न योषितां कथमिमां हृदयं मृदु नाम यत् / तदिषुमिः कुसुमैरपि दुन्वता' सुविवृतं विबुधेन मनोभुवा // 23 // अन्वयः-योषिताम् हृदयम् मृदु नाम ( इति ) यत् , स प्रकृतिः गुप्पः इमाम् कथम् न एतु ? कुसुमैः इषुमिःदुन्वता विबुधेन मनोभुवा तत् सुविवृतम् / / टोका-योषिताम् स्त्रीणाम् हृदयम् हृद् मृदु सुकुमारम् नामेति प्राकाशे प्रसिद्धौ इति यावत 1. धुन्वता।