________________ चतुर्थसर्गः 259 टिप्पणी-विद्याधरने यहाँ 'हेतुरलंकारः' कहा है। शब्दालंकार वृत्यनुपास है। श्लोक का माव यह है कि ईश्वर जो करता है, मला ही करता है / वह आलोचना से परे है। स्मररिपोरिव रोपशिखी पुरां दहतु ते जगतामपि मा त्रयम् / इति विधिस्त्वदिषून् कुसुमानि किं मधुमिरन्तरसिञ्चदनिवृतः // 87 // अन्वय-स्मर-रिपोः रोप-शिखी पुराम् त्रयम् इव ते अपि रोप-शिखी जगताम् त्रयम् मा दहतुइति भनिवृतः ( सन् ) विधिः स्वदिषून् कुसुमानि मधुभिः अन्तः असिञ्चत् किम् ? टीका-स्मरस्य कामस्य रिपोः शत्रोः महादेवस्येत्यर्थः रोपस्य बापस्य ( 'पत्त्रो रोप इषुयोः' इत्यमरः ) शिखी अग्निः 'शिखिनौ वह्नि-वहिणौ' इत्यमरः (प० तत्पु० ) पुराम् पुराणाम् मयनिर्मितानाम् स्वर्ण-रौप्य-लोहात्मकानाम् ( 'पूः स्त्री पुरी नगयौँ वा' इत्यमरः) त्रयम् व्यात्मक-संख्या इव ते तव रोप-शिखी बाणाग्निः जगताम् भुवनानां स्वर्ग मर्त्यपातालानां त्रयम् अपि मा दहतु मस्मीकरोतु इति मत्वा अनिर्वृतः अनिश्चिन्तः सचिन्त इति यावत् सन् विधिः ब्रह्मा तव इथून बाणान् ( 10 तत्पु०) कुसुमानि पुष्पाणि मधुभिः मकरन्दैः अन्तः अभ्यन्तरे असिञ्चत् सिक्तवान् किम् ? मकरन्दजलसिक्ता अग्निबाणा दग्धुं न शक्ष्यन्तीति मावः / / 87 // ___ व्याकरण-शिखी शिखा = ज्वाला अस्यास्तीति शिखा+इन् ( मतुबथें ) त्रयम् त्रयोऽवयवा अत्रेति त्रि+तयप्, तयप को विकल्प से अयच, प्रयच के अभाव में त्रितयम् बनेगा। भनिवृतः न+ निर्++क्त ( कर्तरि ) / मा दहतु-यहाँ निषेधार्थक मा शब्द स्वतन्त्र है, माङ नहीं, अन्यथा कुङ् हो जाता। __ अनुवाद-तोनों पुरों को जलादेने वाली महादेव की बाणाग्नि की तरह तेरो मी बाणाग्नि (कहीं ) तीनों भुवनों को जला न बैठे-इस ( मय ) से चिन्तित हुए विधाता ने तेरे बाप-रूप पुष्पों का भीतरी माग मकरन्दों से सींच दिया क्या ? / / 87 / / टिप्पणी-वैसे तो फूलो के मोतर मकरन्द का होना स्वामाविक ही है, किन्तु कवि को कल्पना यह है कि विधाता ने इसलिए उन्हें मकरन्द से सींचा कि जिससे वे गीले बने रहें। गीली चीज जलती नहीं है / कामदेव देखो तो पहले हो महादुरात्मा इसलिए उसके धनुष-बाण फूल बनाए / तिसपर भी अपने फूलों के वाषों की भाग से वह सब कुछ फूंक दे सकता था, लेकिन मकरन्द-जल से गीले हो जाने के कारण उनकी दाहकता जाती रहो। इस तरह उत्प्रेक्षा है जिसका वाचक शब्द यहाँ 'किम्' है / उत्प्रेक्षा के साथ उपमा की संसृष्टि है / 'रिपो' 'रोप' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। स्मररिपोः-यहाँ प्रत्यक्ष सम्बोध्यमान कामदेव मध्यम पुरुष बना हुआ है, अतः उसके लिए 'स्मर-रिपोः' यह प्रथम-पुरुषीय प्रयोग हमारे विचार से अनुपपन्न लग रहा है। उचित तो यही है कि स्मर शब्द को हम यहाँ पृथक् करके उसे सम्बोधन माने और रिपोः का प्रकरण-वश स्वद्-रिपोः अर्थ करें। पुरात्रयम्-इस सम्बन्ध में पीछे श्लोक 76 देखिए / विधिरनंश'मभेद्यमवेक्ष्य ते जनमनः खलु लक्ष्यमकल्पयत् / अपि स वज्रमदास्यत चेत्तदा त्वदिषुमिय॑दलिष्यदसावपि // 88 // 1. रनङ्ग।