Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 314
________________ 314 नैषधीयचरिते क्षत्रिय-धमों युद्धम् / येन केनापि प्रकारेण दमयन्त्या मनोरन्जनं स्यादित्येव राशा ध्येयं जातमिति भावः / / 32 / / म्याकरण-भूषणम्-भूष्यते ( अलंक्रियते ) शरीरमनेनेति / मूष+ल्युट ( करणे) येषु-येषु तत्र, तत्र वीप्सायां द्वित्वम् / क्षितिमृताम्-क्षिति+/भृ+विप ( कर्तरि ) पुरुषार्थ-प्रथः यास्काचार्य के अनुसार अर्थ्यते ( काम्यते ) इति, पुरुष पुरि ( शरीरे ) शेते ( तिष्ठति ) इति पुर+ Vशी+अच ( अधिकरणे ) पुरिशयः ( जीवात्मा ) पृषोदरादित्वात् साधुः / अनुवाद-दमयन्ती जिन-जिन भूषयों अथवा गुषों को चाहती है, उन-उममें थोड़ी सी मी जो विशेषता ( अपने से हो जाय ), वही राजे लोगों का लक्ष्य बन गई / / 32 / / टिप्पणी-विद्याधर ने यहाँ अतिशयोक्ति कही है सम्भवतः इसलिए कि अपने मोतर राजाओं का दमयन्ती द्वारा अपेक्षित गुणाधान करना ही पुरुषार्थ हो गया है, जो वस्तुतः पुरुषार्थ नहीं है / शास्त्रानुसार पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार ही होते हैं। राजाओं का पुरुषार्थ धर्म अर्थात् युद्ध कहा गया है, देखिये गीता-'स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि / धाद्धि युद्धा छ योऽन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते // इस तरह गुणाधान के पुरुषार्थ से भिन्न होने पर मी उसका पुरुषार्थों के साथ अमेदाध्यवसाय हो रखा है। अथवा विशेषता का पुरुषार्थ से असम्बन्ध होने पर सम्बन्ध बताया गया है / येषु येषु, तत्र तत्र, में कुछ विद्वानों द्वारा स्वीकृत वीप्सा अलंकार है। 'कलयापि में अपि शब्द के बल से अधिक हो,तो कहना ही क्या इस अर्थ को आपत्ति से भर्यापत्ति है / 'पेषु प्येषु' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। शैशवव्ययदिनावधि तस्या यौवनोदयिनि राजसमाजे / आदरादहरहः कुसुमेषोरुल्ललास मृगयाभिनिवेशः // 33 // अन्वयः-तस्याः शैशव-व्यय-दिनावधि कुसुमेषोः यौवनोदयिनि राज-समाजे अहरहः आदरात मृगयाभिनिवेशः उल्ललास / ___टीका-तस्याः दमयन्त्याः शैशवस्य बाल्यावस्थायाः यः व्ययः अपगमनम् समाप्तिरित्यर्थः तस्य दिनम् दिवसः ( उभयत्र 10 तत्पु० ) भवधिः अमिविधिः आरम्मिकसीमेत्यर्थः यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा ( ब० वी० ) शैशवावगमदिनात् आरम्येति यावत् कुसुमानि पुष्पाणि इषवः बाप्पा यस्य तथाभूतस्य ( ब० वी० ) कामस्येत्यर्थः यूनोभावः यौवनम् तस्य उदयः प्रादुर्भाव (प० तत्पु० ) अस्मिन्नस्तीति तथोक्ते यौवनोन्मुखे इति यावत् राज्ञाम् नृपाणां समाजे मण्डले ( 10 तत्पु० ) महरहः प्रतिदिनम् भादरात् अभिलाषात् औत्सुक्यादित्यर्थः मृगयायाम् आखेटे अभिनिवेशः अाग्रहः उल्ललास उदलसत् प्रादुर्बभूवेत्यर्थः। दमयन्ती शैशवमपहाय युवावस्थायां कृतपदार्पणाम् श्रुत्वा तदुपयमनौत्सुक्ये कामपीडाम् अनुभवन्तो राजानो युद्धविरता बभूवुरिति भावः / / 33 / / व्याकरण-शैशवम्-शिशोः माव इति शिशु+अण् / व्ययः वि+Vs+अच् ( मावे ) / घु:-इष्यते ( प्रक्षिप्यते ) इति /इष् + H / यौवनम् यूनो माव इति युवन् +अण् / अहरहः

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