Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 363
________________ पञ्चमसर्गः अमृतमय शरीर को छुते हा नल की दृष्टि अमृतमय-जैसी हो बैठी। पूर्वाध में कही सामान्य बात का उत्तरार्ध में कही विशेष बात द्वारा समर्थन होने से विशेष से सामान्य का समर्थन रूप अर्थान्तरन्यास अलंकार है। इसके अतिरिक्त देवताओं को देखकर अत्यन्त आनन्दं अनुभव करती हुई दृष्टि पर यह कवि की कल्पना ही समझो कि मानो वह अमृत में स्नान कर रहो हो। इस तरह यहाँ गम्योत्प्रेक्षा भी है / शम्दालंकारों में 'जन्य', 'जन', 'जनि', 'जन' में ज और न का एक से अधिक बार साम्य होने से अन्यत्र की तरह वृत्त्यनुपास ही बनेगा। मत्तपः क न तनु क फलं वा यूयमीक्षणपथं व्रजथेति / ईदृशं परिणमन्ति पुनर्नः पूर्वपूरुषतपांसि जयन्ति // 95 // अन्वयः-तनु मत्तपः क्व ? यूयम् इक्षण-पथं व्रजय हात फलम् वा क्व ? पुनः ईदृशम् परिणमन्ति नः पूर्व-पुरुष-तपांसि जयन्ति / ___टोका-तनु अत्यल्पम् मम तपः तपस्या (प० तत्पु० ) क्व कुत्र ? यूयम् भवन्तः ईक्षणयोः नयनयोः पन्थानम् मार्गम् गोचरतामित्यर्थः बजथ गच्छथ इति फलम् परिणामः वा क्व ? मम तपः क्षुद्रमेवास्ति; तस्य फलं भवदर्शनं न सम्भवति, तस्य तपोऽतिशयलभ्यत्वात् / पुनः किन्तु ईशम् एवम् यथा स्यात्तथा मवदर्शनरूपेणेत्यर्थः परिणमन्ति फलन्ति फलस्वरूपमित्यर्थः नः अस्माकम् पूर्वेच ते पूरुषाः पित-पितामहादिपितर इत्यर्थः ( कर्मधा० ) तेषां तपांसि तपस्याः जयन्ति सवोत्कर्षण वर्तन्ते अर्थात् मम पितृप्पामुस्कृष्टतपसामेवेदं फल न तु मे क्षुद्रतरता यत् मम भवदर्शनं संजातम् // 15 // व्याकरण-ईक्षणम् ईक्ष्यतेऽनेनेति Vईक्ष + ल्युट् ( करणे ) / ईचणपथम् समास में पथिन् शब्द को अ प्रत्यय हो जाता है और वह राम की तरह अकारान्त बन जाता है। परिणमन्ति परि+/नम् + शत, नपुं० ब० व० / तपांसि /तप् + असुन् / नः अस्मत् के षष्ठी बहुवचन 'अस्माक' का वैकल्पिक रूप। अनुवाद-कहाँ मेरा तुच्छ तप और कहाँ उसका ( यह ) फल कि आप लोगों के दर्शन हो रहे है ? किन्तु इस प्रकार फल दे रहे हमारे पूर्व पुरुखाओं के तप (ही) उत्कृष्ट हैं // 15 // टिप्पणी-देवता लोगों के सम्बन्ध में यह बात प्रचलित है कि-'परोक्षप्रिया देवा' अर्थात् वे परोक्ष रहना ही पसन्द करते हैं। यदि किसी तरह उनके प्रत्यक्ष दर्शन हो जायें, तो समझो कि यह महान् पुण्यों अथवा तपों का फल है / इसलिए नल देव-दर्शन का सारा श्रेय अपने तुच्छ तप को नहीं प्रत्युत अपने पुरखाओं के अनन्त तपों को दे रहे हैं। 'कहाँ मेरा तुच्छ तप और कहाँ देव-दर्शन'इन दो विरुद्ध बातों की संघटना बनाने से यहाँ विषमालंकार है। विद्याधर विषम के साथ-साथ अतिशयोक्ति मी कह रहे हैं। संभवतः उनका आशय नल के तपा के साथ फलरूपेण देव-दर्शन का सम्बन्ध होने पर भी कवि द्वारा असम्बन्ध बताने में हो। 'तपः' 'तपासि' एवं '' 'क्व' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। 'परि' 'पूर्व' और 'पूरु' में पोर र वर्षों की एक से अधिक बार आवृत्ति होने पर छेक न बनकर वृत्त्यनुपास ही बनेगा। 1, ईदृशान्यपि दधन्ति /

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