Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 388
________________ नैषधीयचरिते साम् शंसति कथयति / निमीलने यत् नयनयोः भ्रमणं, तेन एतत सूच्यते क्षणे एव मरणं भवति, निमेषसदृशं मरणं क्षणिकं जीवनमिति यावदिति मावः // 126 // व्याकरण-धीरः इसके लिए पीछे श्लोक 118 देखिए। क्व इसके लिए मो पोछे श्लो० 122 देखिए / चिरयति चिरं करोतीति चिर+णिच् + लट् ( नामधा० ) प्राणने प्र+/अन् + ल्युट ( मावे ) / प्रतिभूः प्रति = स्थाने भवतीति प्रति+VS+विवप् ( कर्तरि ) द्विनयनी अकारान्तोत्तरपद होने से ङोप् / निमेषः-नि+/मिष +घम् ( मावे ) / घूर्णनम् /चूर्ण + ल्युट् ( भावे ) / अनुवाद-विद्वान् पुरुष प्रार्थित वस्तु देने में कहाँ देरी लगाता है ? क्षणमर भी जीवित रहने का कौन विश्वास दिलाने वाला है ? दोनों बॉखें झपकने के बहाने घूमती हुई शीघ्र ही मृत्यु ( का संदेश ) कहती हैं // 126 // टिप्पणी-जीवन क्षणभंगुर है / हम कब तक जीवित रह सकते हैं इस बात को गारण्टी कोई नहीं दे सकता है / झपकी के रूप में हमारी आँखें क्षणमर में हमेशा के लिए स्वयं का बन्द हो जाने का संदेश देती रहती हैं। इसलिए जो कुछ देना हो, तत्काल दे देना चाहिए / विद्याधर अपह्नति ठीक ही बता रहे हैं। इस अपह्नति को कैतवापह ति कहते हैं। हमारे विचार से यहां अपह्नुति से उत्थापित उत्प्रेक्षा भी है अर्थात ऐसा लगता है मानो झपकने के बहाने आँखें क्षणभर में मृत्यु के हो जाने का संदेश कह रही हों। इसे गम्योत्प्रेक्षा कहेंगे। मेष' 'मिष' तथा 'घूर्ण' 'पूर्णा' में छक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। अभ्र पुष्पमपि दित्सति शीतं सार्थिना विमुखता यदभाजि / स्तोककस्य खलु चन्चुपुटेन ग्लानिरुल्लसति तद्घनसधे // 127 // अन्वयः-शीतम् अभ्रपुष्पम् दित्सति अपि धन-सङ्के अर्थिना स्तोककस्य चन्चुपुटेन सा विमुखता बत् अमाजि, तत् ( धनसंघे ) म्लानिः उल्लसति खलु / / टोका-शीतम् शीतलम् अभ्रपुष्पम् जलम् ( 'मेघपुष्पं धनरसः' इत्यमरः ) दित्सति दातुमिच्छति सति अपि धनानां मेघानां सङ्घ घटायाम् अर्थिना याचकेन स्तोककस्य चातकस्य ('अथ सारङ्गः स्तोककश्चातकः समौ' इत्यमरः) चन्भवोः पुटेन मुखेनेत्यर्थः (10 तत्पु. ) सा प्रसिद्धा विमुखता वि = विरुद्धं मुखं यस्य ( प्रादि ब० वी० ) तस्य मावस्तत्ता पराङ्मुखत्वं परावृत्तिरिति बावत् यत् यस्मात् अभाजि गृहीता, तत् तस्मात् धनसङ्के ग्लानिः मलिनता कालिमेति यावत् सखसति स्फुरति खलु उत्प्रेक्षायाम् / चातकचच्चा मेघम् जलं याचितम् , मेघोऽपि तस्मै जलं दातुमिच्छन्नपि जलदाने कमपि बिलम्बमकरोत् , विलम्बेन खिन्ना, निराशा चातक-चन्चुः मेघात परावृत्ता; जलदानविलम्बजनित-पापरूप-कालिमा मेघे जातेति भावः / अथ च स्तोकं तुच्छमेव स्तोककम् तस्य तुच्छवस्तुनः प्रथिना=याचकेन मुखेन वदनेन यत् पराङ्मुखत्वमाश्रितम् , तस्मात शीतम् दारिद्रयनिवारकम् अभ्रपुष्पम् खपुष्पतुल्यं दुष्प्रापं वस्तु दातुमिच्छत्यपि मेघसंघे मेघसदृशे पुरुषे म्सानिः विलम्बकृतापयशसः कलको जायते। तुच्छात्तच्छस्यापि वस्तुनः प्रदाने दाता विलम्बं कुरुते, पाचकस्य मुखं च तस्माद परावृत्तं गच्छतीति तत् महापकोत्त: स्थानं भवति / क्यमिन्द्रादयस्तु देवाः स्मः, तस्मादस्माकं प्रार्थनां नक, पूरयेति भावः // 127 //

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