Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 393
________________ पञ्चमसर्गः 396 शाश्वतो भवति; तयोः पूर्वा न वरम् अपरैव वरम् / अनित्यायाः दमयन्त्याः कृते प्रतिशामुल्लंघयन् शाश्क्ती चन्द्रशुभ्रां दिदिगन्त-व्यापिनी कीति माऽवमन्यस्वेति भावः / __व्याकरण-प्रेयसी प्रिय+ईयसुन् + ङीप ( अतिशयार्थ )।-मङ्गिन् मङ्गोऽस्यास्तीति मा+ इन् / मतुबर्थ)। दृग दृश्यतेऽनेनेति/दृश्+क्विप ( करणे)। कदर्थयति कुत्सितः अर्थः कदर्थः ( कुत्सित को कदादेश ) दुःखम् , कदर्थ-दुःखयुक्तं करोतीति ( 'सुखादयो वृत्तिविषये तद्वति वर्तन्ते') कदर्थ+पिच+लट् ( नामधा०) दुःखयति / अनुवाद-प्रेयसी ( तथा ) मुख शोमा से चन्द्रमा को जीते हुए जो ( कोति ) दिशापान्तों को गयी हुई मी ( प्रियतम को) नहीं छोड़ती है, ऐसी कीर्ति को विनश्वर समागम वाली मृगनयनी के खातिर कौन दुःख देता है ? टिप्पणी-यहाँ कवि कीर्ति पर नायिका-व्यवहार-समारोप करके समासोक्ति बना रहा है / वह उसे ऐसी पत्नी का रूप दे रहा है निसका साथ त्रिकाल बना रहता है जबकि मानवी पत्नी ऐसी नहीं होती, क्योंकि वह विनाशवान् है। इस तरह कीति-रूपी पत्नी में अधिकता बताने से व्यतिरेक मी बन रहा है। 'कुरङ्गम्' में उपमा है / इसलिए इन सबका यहाँ संकर है। विद्याधर 'दिगन्तगतापि न मुञ्चति' में विरोध भी कह रहे हैं। यहाँ यह ध्वनित हो रहा है कि खलनायक कलि की कुचेष्टाओं के कारण नल के साथ दमयन्ती का समागम बाद को टूट जायेगा, जिसे हम अलंकार से वस्तुवनि कहेंगे' / 'भङ्गि' रज' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। यान् वरं प्रति परेऽर्थयितारस्तेपि त्वां वयमहो स.पुनस्त्वम् / येव नः खलु मनोरथमात्र शूर ! पूरय दिशोऽपि यशोभिः // 132 // अन्वयः-परे यान् प्रति वरम् अर्थयितारः ते अपि वयम् (वाम् प्रति अर्थयितारः ) इति अहो! स स्वम् पुनः हे शर, खलु नः अस्माकम् मनोरथमात्रम् न एव, ( अपितु ) यशोमिः दिशः अपि पूरय / टीका-परे अन्ये पुरुषाः यान् अस्मान् देवान् प्रति लक्ष्यीकृत्य वरम् अमीष्टम् अर्थयितार: याचका मवन्तीति शेषः, ते श्रपि देवा वयम् त्वाम् नलम् प्रति अर्थयितारः स्मः अर्थात् लोका अस्मान् वरं याचन्ते,वयं तु दातारः सन्तोऽपि त्वां याचामहै / इति अहो ! आश्चर्यम् / स एवमस्माभिर्याच्यमानः स्वम् पुनः हे शूर, दानवीर, खलु निश्चयेन अस्माकं देवानाम् मनोरथम आमेलापम् एवेति मनोरथमात्रम् न एवं अपितु यशोभिः कीर्तिमिः दिशः दिशा अपि पूरय पूर्णाकुर, दौत्य-सम्पादनेन अस्माकं मनोरथं पूरयित्वा तद्-द्वाराऽर्जितयशसा दिशा अपि पूरयेति मावः // 132 // व्याकरण-अर्ययितारः अर्थमन्ते इति /अर्थ +तृन् , तृन्नन्त होने से 'वरम्' में षष्ठो-निषेध होकर दि० / मनोरथमात्रम् मनोरथ+मात्रच ( केवलाथें ) / अनुवाद-दूसरे लोग जिनसे ( हम देवताओं से ) वर माँगा करते हैं, वे ऐसे होते हुए भी हम ( देवता ) तुमसे याचना कर रहे हैं-कैसी आश्चर्य को बात है ! हे ( दान-)वोर ! तुम निश्चय हो केवल हमारी अमिलाषा ही पूर्ण न करो (प्रत्युत) यश से दिशाओं को मी पूर्ण कर दो // 132 // टिप्पणी-विद्याधर यहाँ छेकानुप्रास कह रहे हैं जो 'प्र' 'परे' में ही हो सकता है। 'वार'

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