Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 400
________________ नैषधीयचरिते मावुकता भड़काकर उन्हें चंगुल में फॉस ही लिया। नल मी मावना प्रबाह में बह गये और अन. चाहते मी अपने ही हाथों प्रापेश्वरी को, जो उन पर मर रही है, खलनायक को सौंप बैठते हैं / यह तो बेचारी नायिका ही ऐसी निकली है जो किसी तरह बचाव करके अन्त में अपने मार्ग से खल नायकों को हटाने में सफल होती है। अपनी तरफ से नल तो बाजी हार गये थे, नायिका से हाथ धो ही बैठे थे / अन्तिम पाद में इन्द्र द्वारा आशीवाद दिये जाने से आशोः अलंकार है 'भारं' 'भार' में छेक, 'यत्र' 'तत्र' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। छन्द स्रग्धरा है, जिसमें 21 अक्षर होते है और जिसका लक्षण इस तरह है-'नम्नैर्यानां त्रयेष त्रिभुनि तियुता खग्धरा कोतितेयम्' अर्थात् इसमें म, र, म, न य, य, य ये सात गण होते हैं और सात-सात अक्षरों में यति रहती है। श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / तस्य श्रीविजय प्रशस्तिरचनातातस्य नव्ये महा काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गोऽगमस्पश्चमः // 138 // अन्वयः-कविराज' सुषुवे, पूर्ववत् , भीविजयप्रशस्तिरचनातातस्य तस्य नव्ये चारुणि 'नैवधीयचरिते' महाकाव्ये पञ्चमः सर्गः अगमत् / ' टीका-पूर्वार्धस्य पूर्ववत् व्याख्या विशेया 'श्रीविजयप्रशस्तिः' एतन्नाम्न्या रचनायाः कृतेः तातस्य जनकस्य रचयितुरित्यर्थः तस्य श्रीहर्षस्य नग्ये नवीने चारुणि सुन्दरे 'नैषधीयचरिते' महाकाव्ये पञ्चमः सर्गः अगमत् समाप्तः // 138 // अनुवाद-कविराज.. उत्पन्न किया, 'श्रीविजयप्रशस्ति' नामक कृति के रचयिता उस ( श्रीहर्ष ) के नये सुन्दर 'नैषधीय चरित' महाकाव्य में पाँचवा सर्ग समाप्त हुआ // 138 // टिप्पणी-श्रीहर्ष द्वारा प्रणीत 'श्रोविजयप्रशस्ति'-नामक रचना के लिए भूमिका देखिए / 'नैषधीयचरित' महाकाव्य के पञ्चम सर्ग का हिन्दी अनुवाद और टिप्पणी समाप्त / टिहरीपुरि जनिमवाप्य, साम्प्रतं देहरादूने कृतवसतिः / सीतागोद्भूतः, पण्डितवर श्रीजयदेवतनूजन्मा // 1 // 'महामहोपाध्यायात', गुरुवर गिरिधरशर्मचतुर्वेदात्।। उवपुर-जयपुरपुर्योरधिगततत्तद्विषयकशिक्षादीक्षः // 2 // भूतपूर्व-प्राचार्योऽम्बाला-स्थित-स० ध० संस्कृतकालेजस्य / मोहनदेवः पन्तः मेघदूतप्रभृतिकाव्यटीकाकारः // 3 // षट्सप्तत्यधिककोनविंशशतखोष्टाब्दस्य परे मागे। कृतवान् 'छात्रतोषिषीम्' मीहर्षरचित-'नैषधीयचरितस्य' // 4 // मानवशानमपूर्वम् , त्रुटयः स्वभावतः समापतन्त्येव /

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