________________ 298 नैषधीयचरिते सादृश्यम् अन्विच्छति / एतस्य ( प्रश्नस्य ) अद्य स्वत्तेजसाम् लडने साहस्रः अपि अर्धािमः परः अभिव्यक्तोमवन् मानुमान् नः उत्तरम् समान। टीका--सहस्त्रं सहस्रसंख्यकाः पादाः चरणाः अथ च किरणाः यस्य तथा तः (ब० वी०) सयं इत्यर्थः ( 'भानुहंसः सहस्रांशुः' इत्यमरः ) यम् शनैश्चरम् पुत्रम् प्रासूत उदपादयत् स छायायाः एतन्नाम्न्याः सूर्यपरन्याः तनयः पुत्रः (10 तत्पु० ) ( भन्दश्छायासुतः शनिः' इत्यमरः) पादेन चरणन खजः पङ्गः विकल इति यावत् कथम् कस्मास्कारप्पात् सदमवत् उत्सन्नः किला यतः अथवा वातोयाम् सुतः पुत्रः पितः जनकस्य सादृश्यम् अन्विच्छति अनुगच्छति, पुषः पितुः सदृशो भवतीत्यर्थः, पितुः सूर्यस्य सहस्रपात्त्वे पुत्रेण शनिनापि सहस्रपादा मवितव्यमासात् , न तु खजे. नेति प्रश्नाशयः। एतस्य प्रश्नस्य अद्य अस्मिन् दिने तव तेजसाम् प्रतापानाम् (20 तत्पु० ) लङ्घने अतिक्रमणे साहस्त्रैः सहस्रसंख्यकैः अपि अघ्रिभिः पादैः अथ च किरणः पङ्गुः खः अभिव्यक्तीमवन् प्रकटोभवन् भानुभान सूर्यः नः अस्माकम् उत्तरम् प्रतिवचनम् समजनि जातम् / सहस्रपादैरपि त्वत्तेजोऽतिक्रमणासामर्थात् पितुः सूर्यस्य पङ्गुत्वं पुत्रस्य शनेरपि पारवे स्वाभाविकमेवे. त्यर्थः / सूर्यतेजोऽपेक्षया त्वत्तेजोऽधिकमिति भावः // 136 / / व्याकरण-सहस्रपात 'संख्यासुपूर्वस्य' ( 5 / 4 / 140) से ( ब० बी०) में द के कार का लोप / प्रास्त प्र+/+लङ् ( आत्म०)। पादेन खजः अधिभिः पङ्गुः 'येनाङ्ग वकार' (2 // 3 // 20) से तृ० / सावश्यम सशस्य माव इति सदृश+ध्यम् / अद्य अस्मिन्नहनीति इदम् + प्रश् , च आदेश / साहनेः सहस्रमेषामस्तोति सहस्त्र+अण् (मतुबर्थोय ) ( 'अय् च' 5 / 2:03 ) / समजनि सम् + जन्+लुङ् ( कतरि ) / अनुवाद-सहस्रपादों ( पैरों ) किरणों वाले ( सूर्य ) ने जिसे उत्पन्न किया, वह छाया का पुत्र ( शनि ) पंगु कैसे हो गया ? सुनते हैं कि पुत्र पिता का सादृश्य रखा करता है / इस ( प्रश्न ) का उत्तर हमारे पास आज ( स्वयं ) सूर्य बन गया है, जो सहस्र पादों ( पैरों, किरणों ) का रखे हुए मी तुम्हारे तेज का अतिक्रमण करने में पंगु दीख रहा है // 136 // टिप्पखो-न्याय-सिद्धान्तानुसार 'कारणगुणाः कार्य-गुणान् आरमन्ते' इस नियम से कारणभूत सहस्रपाद सूर्य से उत्पन्न कार्यभूत शनैश्चर को भी सहस्रगद होना चाहिए था, लेकिन वह देखो तो पंशु हुआ। वह विद्वानों के समक्ष अब तक एक प्रश्नचिह्न बना हुआ था, जिसका समाधान उन्हें मात्र मिला है, वह यह कि शनि का पिता सूर्य भी तो पंगु ही है, जो नल के यश को लांघ नहीं पा रहा है, इसलिए पंगु पिता का पुत्र भी पंगु नहीं होगा, तो क्या होगा। मल्लिनाथ यहाँ “अबाकस्यापको पगुस्वोक्तिरतिशयोक्तिमेदः, तद्धेदुरवं च शनैश्चरे पङ्गुत्वम्योत्प्रेक्ष्यते इति संकर:" कह गये हैं अर्थात् सूर्य के साथ पंगुत्व का असम्बन्ध होने पर भी पंगुत्व का सम्बन्ध बताया गया है, अतः असम्बन्ध सम्बन्धातिशयोक्ति है जिसका सूर्य के साथ पंगुत्व के सम्बन्ध में शनैश्चर के पंगुत्व की कार णता की कल्पना करने से उत्प्रेक्षा के साथ संकर है। विद्याधर यहाँ चुप हैं। हमारे विचार से विभिन्न पादों. चरणों और किरणों में अमेदाध्यवसाय होने से मेदे अभेदातिशयोक्ति मी है। उत्तरार्ध-वाक्या। पूर्वाध-वाक्यार्थ का कारण बनने से काव्यलिंग है / सूर्य के तेज को अपेक्षा नल के तेज में अधिकता