Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 392
________________ नैषधीयचरिते वामन (बौने ) के रूप में अवतीर्ण हुए। भिखारी का वेष बनाकर वे राजा बलि के पास गये और अपने लिए कुटिया बनाने को तीन पैर नाप की धरती की मांग कर बैठे। बलि बड़ा दानी था। उसने भिखारी की यह छोटी-सी मांग स्वीकार कर ली। पाछे असुरगुरु शुक्राचार्य ने बलि को बहुतेरा समझाया कि भिखारी छलिया है, दान मत दे लेकिन राजा बचन-बद्ध था। क्यों वचन से मुकरता ? प्रतिज्ञा पूरी कर दी। बौने ने बाद को विशाल रूप धारण करके दो पगों से धो और भू को नाप लिया और तीसरा पग धरने जब बलि से पूछा कि कहाँ रखू , तो बलि ने अपना सिर अागे कर दिया। भगवान् ने अपने पैर से दबाकर उसे पाताल घुसेड़ दिया। विन्ध्य-मारतीय खगोलसिद्धान्त के अनुसार सुमेरु उच्चतम पर्वत माना जाता है, जिसके इर्दगिर्द सूर्य चक्कर काटा करता है विन्ध्याचल सुमेरु से खार खा बैठा / उसने सूर्य से अनुरोध किया कि तू सुमेरु को छोड़कर मेरे इदागद चक्कर काटा कर। सूर्य ने स्वीकार नहीं किया। इस कारण क्रुद्ध विन्ध्य सुमेरु की ऊंचाई तक पहुँचने के लिए बढ़ता-बढ़ता सूर्य और चन्द्र का मार्ग ही जब रोकने लगा, तो देवता लोग घबरा उठे। उन्होंने अगस्त्य ऋषि की सहायता माँगी, जो विन्ध्य के गुरु ये / ऋषि को आता देख विन्ध्य ने गुरु को प्रणाम करते हुए सिर नीचे झका दिया। ऋषि बोले-'मैं दक्षिण को जा रहा हूँ, जबतक वापस नहीं आ जाता तब तक तुम सिर नीचे किये स्थिति में ही रहना'। शिष्य ने वचन दे दिया। अब तक न गुरु ही लौट आये और न शिष्य ही सिर उठा पाया। विन्ध्य अब तक सिर नीचे किये अपनी प्रतिज्ञा का पालन करता चला आ रहा है / बलि और विन्ध्य का उदाहरण देने में वरुप का यह अभिप्राय है कि 'दानव और जड़ पहाड़ तक जब वचन का पालन करते चले आ रहे हैं, तब तुम तो मानव हो, विद्वान् हो, क्यों वचन से मुकरे जा रहे हो ?' प्रेयसी जितसुधांशुमुखश्रीर्या न मुञ्चति दिगन्तगतापि / मङ्गिसङ्गमकुरङ्गदगर्थे कः कदर्थयति तामपि कार्तिम् / / 131 / / अन्वयः-प्रेयसी, जित...श्रोः या दिगन्त-गता अपि न मुञ्चति, ताम् अपि कीर्तिम् भङ्गि गर्थे कः कदर्थयति ? टीका-अतिशयेन प्रियेति प्रेयसी प्रियतमा तया जितः तिरस्कृतः सुधांशुः ( कर्मधा० ) चन्द्रः यया तथाभूता ( 20 वी० ) [ सुधा अमृतम् अंशुषु किरणेषु यस्य तथाभूतः ( ब० वी०) ] मुखस्य वदनस्य श्रीः शोभा शुक्लिमेत्यर्थः ( 10 तत्पु० ) यया तथाभूना ( ब० वा० ) मियतमा च स्त्रमुख श्रया चन्द्रं परामवन्ती चेत्यर्थः या कीतिः कीर्तिरूपा स्त्री इति यावत् , दिशाम् आशानाम् अन्तेषु प्रान्तेषु (प. तत्पु० ) गता प्राप्ता ( स० तत्पु०), सुदूरं गताऽपोति भावः न मुञ्चति प्रियं न त्यजात, ताम् अपि तथाविधाम् अपि कीतिम् मङ्गी भङ्गशील: विनश्वर इति यावत् संगमः सङ्गः, समागमो (कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता (ब० वो० ) या कुराहक मृगनयनो ( कर्मधा० ) [कुरहस्येव दृक दृष्टिः यस्याः सा ( ब० वी० ) तस्या अर्ये निमित्ते कः कदर्थयति पीडयति ? न कोऽपोति काकुः / पत्नीद्वयमध्ये एका मृगनयनी दिदिगन्तं गच्छति, प्रियं मुश्चति सङ्गमोऽपि तथा सह न नित्यो मवति, अपरा प्रेयसी मुखश्रिया चन्द्रमपि पराभवति, दिदिगन्तमतापि न प्रियं मुन्नति, संगमोऽपि तया

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