________________ 311 नैषधीयचरिते 'पूर' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है / श्लोक का भाव यह है कि दूत बनकर हमारी मनोकामना पूरी करोगे, तो जग में तुम बड़ा नाम कमाओगे कि नल के पास देवता तक याचक बनकर आये थे। अर्थितां स्वयि गतेषु सुरेषु म्लानदानजनितोरुयशःश्रीः / अद्य पाण्डु गगनं सुरशाखी केवलेन कुसुमेन विधत्ताम् // 133 / / अन्वयः-सुरेषु त्वयि अथिताम् गतेषु सत्सु सुर-शाखी म्लान. श्रीः मन अद्य केवलेन कुसुमेन गगनम् पाण्डु विधत्ताम् / टीका-सुरेषु अस्मास देवतासु स्वपि त्वां नलं प्रति अर्थिताम् याचकतां गतेषु प्राप्तेषु सत्स सुराखां देवानां शाखी वृक्षः कल्पवृक्ष इत्यर्थः म्लाना म्लानिं गता विनष्टपायेत्यर्थः दानजा दानात् जायते इति तथोक्ता ( उपपद तत्पु० ) निजा स्वकीया उवी महती यशःश्रोः कीर्ति-शोमा ( सर्वत्र कर्मधा० ) यशसः श्रीः (10 तत्पु० ) यम्य तथाभूनः / ब० वी०) मन् प्रद्य इदानीम् केवलेन एकमात्रेण यशोरहितेनेत्यर्थः कुसुमेन पुष्पेण गगनम् स्वर्गम् पाण्डु श्वेतं विधत्ताम् करुनाम् / अधावधि दिव्यः कल्पवृक्षो याचकेभ्यो यथाभिलषितवस्तुपदानजनितेन धवलेन यशसा धवलेनैव च स्वःपुष्पेण स्वर्ग श्वेतीकरोतिस्म, इदानीं तु अम्माकं तस्य स्थाने त्वां प्रतियाचकत्वेनागमनात् सया तस्य यशोऽपहनम् , अतोऽपौ पुष्पमात्रेणैव स्वर्ग श्वेतीकरीति, न तु यशसेति भावः / / 133 // ___ व्याकरण-अर्थिता अर्थिनो भाव इति अर्थिन् + तल्+टाप् / म्लान /म्ले+क्तः ( कर्तरि ) त को न / दानज दान+/जन्+ड ( कर्तरि ) / शाखी शाखाः अस्य सन्नोति शाखा+गन् ( मतुबर्थ ) / सुर इसके लिए पीछे श्लोक 34 देखिये। अनुवाद-देवताओं के तुम्हारे पास याचक बनकर आने पर दान देने से अर्जित अपने विपुल यश की शोमा खोये हुए कल्पवृक्ष अब केवल पुष्पमात्र से ही स्वर्ग को श्वेत बनावे ( यश से नहीं)॥ 133 // टिप्पणी-संस्कृत-कविजगत् में यश को श्वेत-वर्ण कहा जाता है। कारण यह है कि दया, दानिता. सत्यसन्धता आदि जितने भी मानव-गुप्त हैं वे सब सत्त्व गुण से सम्बन्ध रखते हैं। सत्र का स्वरूप गीताकार के अनुसार-तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात् प्रकाशकमनामयम्' है, अर्थात् वह प्रकाशक और निर्मल होता है, इसीलिए श्वेतवर्ण है। सात्त्विक गुणों से होने वाले यश ने मी श्वेतवर्ण ही होना है, क्योंकि न्यायसिद्धान्त के अनुसार कार्य के गुण कारण-गुग से ही हुआ करता है / यहाँ कारण बताने से काव्यलिंग है। 'गतेषु' सुरेषु' म्लान' 'दान' और 'केवलेन' 'कुसुमेन' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / प्रवसते भरतार्जुनवैन्यवत् स्मृतिभृतोऽपि नल ! त्वमभीष्टदः / स्वगमनाफलतां यदि शङ्कसे तदफलं निखिलं खलु मङ्गलम् // 134 // अन्वय-हे नल, मरतार्जुनवेन्यवत् स्मृतिधृतः अपि सन् प्रवसते अमोष्टदः त्वम् स्वगमनाफलताम् यदि शकसे, तत् निखिलम् मङ्गलम् खलु अफलम् /