________________ पशमपर्गः वरुण के मुख से सत्ययुग में कैसे कहलवा दी यह एक बड़ी विसंगति है। विद्याधर ने यहाँ विरोधालंकार कहा है, लेकिन उसका समन्वय नहीं किया है। हो सकता है उनके मस्तिष्क में कवि का यही काल-क्रत विरोध हो। किन्तु कल्पमेद मानकर पूर्व कल्प में घटी कर्ण-विषयक घटना से इसका सम्बन्ध जोड़कर विरोध का समाधान किया जा सकता है। चर्म, वर्म का क्रमशः अन्वय होने से यथासंख्य है / शब्दालंकारों में 'चर्म' 'वर्म' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, 'धोर' 'धोर' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अध यावदपि येन निबद्धौ न प्रभू विचलितुं बलिविन्ध्यौ / आस्थितावितथतागुणपाशस्त्वादृशेन विदुषा दुरपासः // 130 // अन्वयः-येन निबद्धो बलि-विन्ध्यौ अद्य यावत् अपि विलितुम् न प्रभू ( स्तः ), स प्रास्थित... पाशः स्वादृशा विदुषा दुरपासः / टीका-येन सत्यप्रतिशस्वगुणात्मकेन पाशेन निबद्धो बन्धन प्राप्ती बलिश्च विन्ध्यश्चेति ( इन्द्र) अद्य यावत अपि अधपर्यन्तमपि विचलितुम् विचलौमवितुम् निजप्रतिशातत्रचनं भक्तुमित्यर्थः न प्रभू न समर्थों स्तः इति शेषः, पालयत एवेति भावः स श्रास्थितस्य प्रतिज्ञातस्य या अवितथता सत्यता ( प० तत्पु० ) एव गुणः धर्मः एव पाराः बन्धनम् स्वारशा स्वसदृशेन विदषा धोरेण दुरपासः दुःखेनापासितुं योग्यः, नातिक्रमणीय इत्यर्थः / त्वया यत्किमपि दातुं यत् प्रतिज्ञातं तत्पालयेति मात्रः / / 130 // व्याकरण-प्रभुः प्रमवतीति प्र + भू+डुः / श्रास्थित आ+ स्था+क्त ( कर्मणि) आङपूर्वक स्था धातु सकर्मक बन जाता है। अवितथता यास्काचार्य के अनुसार वि+विगतं तथा ( तथ्यं ) यस्मात्, वितथम् ( ब० वी० ) न वितथम् अवितथम् (नञ् तत्पु० ) तस्य भावः तत्तासत्यता / पाशः यास्क के अनुसार 'पाशः कस्मात् ? विपाशनात्' पाश्यते बध्यतेऽनेनेति श+ घञ् ( करणे ) / स्वारशा इसके लिए पीछे श्लोक 120 देखिए / दुरपासः दुर्+/प्रप+ आस +खलु / अनुवाद-जिस ( सत्य-सन्धता रूप गुण) से बंधे हुए बलि और विन्ध्याचल आज तक मी विचलित नहीं हो सके हैं, उस प्रतिशात बात को सत्यता-गुष के पाश से तुझ-जैसा विद्वान् छूट नहीं सकता है // 130 / / टिप्पणी-यहाँ सत्यप्रतिशत्व गुण पर पाशत्व का आरोप होने से रूपक है, किन्तु हमारे विचार से कवि को यहाँ श्लेषमुखेन गुप्प पर गुप्तत्व का आरोप मी विवक्षित है अर्थात् गुणरूपी गुण ( डोरी) का बना पाश। इस तरह यह श्लिष्ट परम्परित रूपक है। तीसरे पाद के अन्त के 'पाश' शब्द के विषयों के चौथे पाद में चले जाने से ( शसयोरमेदात् ) अन्त्यानुप्रास बनते-बनते रह गया है, इसलिए यहाँ भी अन्यत्र को तरह वृत्त्यनुप्रास होगा। बलि-पुराणों के अनुसार प्रह्लाद का पौत्र और विरोचन का पुत्र बलि एक बड़ा शक्तिशाली राक्षस-राज हुआ। देवताओं को वह जब बहुत तंग करने लगा, तो सहायता हेतु वे विष्णु के पास गये। उनको पुकार पर भगवान् अदिति के गर्भ से