Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 389
________________ पञ्चमसर्गः नाम है। - व्याकरण-दिसति दातुमिच्छतीति दा+सन्+लट् , अभ्यास-लोप, आ को इस और सं को त / सङ्घः-सम् + हन् ( गतौ)+अप् ( मावे ) न का लोग और ह को घ / स्तोककस्य दूसरे पक्ष में स्तोक+कः ( स्वाथें ) / अमाजि /मज्+लुङ् ( कर्मवाच्य ) / म्लानिः /म्लै+ तिन् ( भावे ) त को न। अनुवाद-यद्यपि मेव-समूह शीतल जल देना चाहता ही था, तथापि ( जल ) मांगने वाली चातक की ( ऊपर उगी ) चोंच ने (मेघ की देरी से निराश हो ) जो अपने को नीचे कर लिया, इसी कारण मानो मेष समूह में ( पाप को ) कालिमा छा रही है। [ छोटी-सी चीज मांगने वाला ( याचक का ) मुँह जो अभ्रपुष्प-खपुष्प सदृश दुष्पाप वस्तु तक को देना चाहते हुए भी ( देरी करने के कारण ) दाता की ओर से फिर जाता है, उस कारण उसका अपयश हो जाता है ] // 127 // टिप्पणी-हिन्दी में कहावत है-'तुरत दान, महाकल्याण' ! देना हो, तत्काल दे देना चाहिए / झिंका-झिंकाकर दिया दान पुण्य-कोटि से हटकर पाप-कोटि में चला जाता है / मेघ-समूह में कालिमा स्वामाविक होती है, किन्तु कवि ने उस पर पाप-जनित कालिमा को है, अतः यहाँ खलु शब्द-वाच्य उत्प्रेक्षा है / श्लेष मो है। सति' 'शीतं' में (शसयोरमेदात् ) छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। उचिवानुचितमक्षरमेनं पाशपाणिरपि पाणिमुदस्य / कीर्तिरेव मवतां प्रियदारा दाननीरझरमौक्तिकहारा // 128 // अन्वयः-पाश-पाणिः अपि पाणिम् उदस्य एनम् उचितम् अक्षरम् कचिवान्-'भवताम् दान" हारा कीतिः एव प्रिय-दाराः। टीका-पाशः बन्धनं पाणौ हस्ते यस्य तथाभूतः ( ब० वी० ) वरुप इत्यर्थः ('प्रचेता वरुणः पाशी' इत्यमरः) अपि पाणिम् हस्तम् उदस्य उद्यम्य एनम् नलम् ऊचिवान् उक्तवान्-हे नल, ) भवताम् भवत्सदृशान भूपानामित्यर्थः दाने दामक्रियायां यः नीर-झरः ( स० तत्पु०) नीरस्य जलस्य झरः प्रवाहः ( 10 तत्पु० ) संकल्पे प्रवाहरूपेण विसृज्यमाना जल-बिन्दव इत्यर्थः स एव मौक्तिकहारः ( कर्मधा० ) मौक्तिकानाम् मुक्तानां हारः सक् ( 10 तत्पु० ) यस्याः तथाभूता ( ब० वी०) कीर्तिः यश एव प्रियाश्च ता दाराः कलत्रम् अस्तीति शेषः राशी प्रेयप्ती कीतिर्मवति न पुनः राजकुमारी, तस्मात् नः प्रार्थनां स्वीकृत्य कीर्तिमर्जयेति भावः // 128 // _ व्याकरण-उदस्य उत्+/अस्+ल्यप् / ऊचिवान् /वच्+क्वसु ( भूते ) सम्प्रसारण / मौक्तिकम् मुक्ता एवेति मुक्ता+ठक् ( स्वाथें ) / प्रियदाराः 'पुंमृम्नि दाराः' इस अमरकोश के अनुसार स्त्रीवाचक होता हुया मी 'दार' शब्द संस्कृत में नित्य बहुवचनान्त पुंल्लिग होता है। यारकाचार्य के अनुसार 'दाराः कस्मात् ? दारयन्तीति सतः' V+णिच+घञ् अथवा अच् (कतेरि ) अर्थात् स्त्री माई को माई से और पुत्र को माँ-बाप से फाड़ देती है। प्रियः-प्रीपातीति Vी+कः ( कर्तरि ) / अनुवाद-वरुण भी हाथ उठाकर इस ( नल)को उचित शब्द बोला-आप लोगों को प्रिय

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