________________ 186 नैषधीयचरिते है। कल्पवृक्ष देवताओं को सब कुछ दे देता था, इसमें वह अद्वितीय था, लेकिन वह दमयन्ती नहीं दिला सका। तभी तो वे उसे दिलाने नल से याचना कर रहे हैं। इस तरह कल्पवृक्ष से अधिकता नक में सिद्ध हो जाती है। अमिमान छोड़ देने का कारण 'स्वदभिषेक' बताने से काव्यलिङ्ग भी है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / 'मुदं' 'मद' 'मद्य' में भी वृत्त्यनुपास ही बनेगा, क्योंकि यहां वर्षों को एक से अधिक बार आवृत्ति है। अब्रवादथ यमस्तमहृष्टं वीरसेनकुलदीप ! तमस्त्वाम् / यत्किमप्यभिबुभूषति तरिकं चन्द्रवंशवसतेः सदृशं ते // 124 // अन्वयः-अथ यमः श्रद्दष्टम् तम् प्रब्रवीत्-'हे वीरसेन-कुल-दीप ! किम् अपि यत् तमः त्वाम् अमिबुभूषति, तत् चन्द्र-वंश-वसतेः ते किम् सहशम् ? टीका-अथ अनन्तरम् यमः श्रहृष्टम् दमयन्तीप्राप्तौ विघ्नस्य आपतनेन दुःखितम् तम् नलम् अब्रवीत् अवोचत्—'वीरसेनस्य कुलं वंशः (10 तत्पु० ) तस्य दीपः दीपवत्पकाशकः तत्सम्बुद्धौ हे नल ! किम् अपि अल्पमित्यर्थः यत् Rमः अन्धकारः अथ च अशानम् त्वाम् अमिबुभूषति अभिभवितुमिच्छति, चन्द्रस्य वंशे कुले ( 10 तत्प० ) वसतिः स्थिति: जन्मेति यावत् ( स० तत्पु०) यस्य तथाभूतस्य ( ब० वी० ) ते तव किम् सरशम् उचितम् ? नेति काकुः / दापस्य चन्द्रकुल सन्नस्य च तमोऽभिभवा नोचितः, अथ च त्वयि ईदृशम् प्रशानं नोचितम् , चन्द्रवंशोत्सन्नास्तु प्रापानाप दातुं जानन्ति, तत् त्वयाऽपि एतदेव कर्तव्यमिति भावः // 124 // व्याकरण-प्रहृष्टम् न हृष्टम् / हृष् + क्तः, त कोट / अमिबुभूषति अभि+/-+सन्+ लट् / वसतिः Vवस् +अतिः / सदृशम्-समान श्+कञ् , ममान को स प्रादश / अनुवाद-तदनन्तर यम दुःखित हुए पड़े उस ( नल ) को बाला-'हे वोरसेन-वश के प्रदीप! थोड़ा सा जो अनोखा चाह रहा है, वह चन्द्रवंश में उसन्न हुए तुम्हारे लिए क्या उचित है ? // 124 // टिप्पणी-नल पर कुलदोपत्वारोप में रूपक है। विभिन्न तमो-अन्धकार और अशान-में अभेदाध्यवसाय होने से मेदे अमेदातिशयोक्ति है। दीपक तथा चन्द्रवंशोत्न्न पर अन्धकार आ ही नहीं सकता है, इसीलिए कवि ने 'अमिबुभूषति' शब्द से यह सूचित किया है कि वह आना-जैसा चाह रहा है, जिसे तत्काल हटा देना चाहिए, क्योंकि-चाण्डूपण्डित के शब्दों में वह औपाधिक है। हम देखते हैं कि न्यायशास्त्र के अनुसार द्रव्य से गुप्प का सम्बन्ध तीन प्रकार से होता हैस्वमाव से, कारण से और उपाधि से, जैसे-किरणों में शुक्लत्व स्वभाव से है, पट पर शुक्लत्व कारण-भूत तन्तुओं से है और स्फटिक पर रक्तस्व लाल फूल को उपाधि से है। नलरूप दीपक पर तम का सम्बन्ध स्वाभाविक तो हो नहीं सकता है; चन्द्रकुलोत्पन्न नल पर कारण से नहीं हा सकता है, क्योंकि कारण-भूत चन्द्र से तम का सम्बन्ध ही नहीं, इसलिए यह औपाधिक ही है। जिनराज और चारित्रबर्धन-दोनों टीकाकार यहाँ शब्दों के हेरफेर के साथ और ही तरह अर्थ करते हैं'अथ च तमः - राहुस्त्वां यदभिबुभूषति, तच्चन्द्रवंशवसतेस्ते किं सदृशं युक्तम् ? कि प्रश्ने / राहुपा चन्द्रस्यामिमवनं सदृशमेवेत्युपहासः' / 'वंश' 'वस' में ( शसयोरमेदात ) छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुमास है।