Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 384
________________ 184 नैषधीयचरिते .... टिप्पणी-झूले पर चढ़ा व्यक्ति कमी आगे, कमो पीछे झूला करता है / न कार भी-संशय का झुला बनाकर कमी इस ओर आ जाता था कि पढ़ा हो नहीं कमी उस ओर चला जाता कि पढ़ा तो लेकिन भूल गया है / तात्पर्य यह निकला कि नल ने अब तक मुख से किसी को मी 'ना' नहीं कही है / जो जो कुछ मांगे, दे देता था। नारायण खलु शब्द उत्प्रेक्षा-परक मान रहे हैं अर्थात् मानों न. कार झूल रहा हो / न-कार पर झूलने की कल्पना ठोक है। यदि कल्पना नहीं मानी जाय, तो हम बड़ न-कार के चेतनीकरण में समासोक्ति कहेंगे। संशय पर दोलात्वारोप में रूपक है। मल्लिनाथ ने अधिजनों के साथ न-कार के संशय का सम्बन्ध न होने पर मी यहाँ सम्बन्ध बनाने से असम्बन्धे सम्बन्धातिशयोक्ति मानी है। विद्याधर रूपक के साथ सदेहालंकार बता रहे हैं जो हमारी समझ में नहीं आता क्योंकि सन्देह वहीं हुमा करता है जहाँ प्रस्तत पर अप्रस्तुत अथवा अपस्ततों का विच्छित्ति-पूर्ण संशय हो / यहाँ न-कार पढ़ा या नहीं पढ़ा, यह विधि निषेध-परक संशय सन्देहालंकार में आता ही नहीं। शम्दालंकारों में 'पठ' 'पिठी' 'पठि' एक से अधिक वार वर्ष साम्य होने से छेक नहीं बन सकता, अन्यत्र की तरह यह मी वृत्त्यनुप्रास ही बनेगा। हाँ, 'चकार' 'न-कारः' में अवश्य छेक है, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / अब्रवीत्तमनलः क्व नलेदं लब्धमुन्झसि यशः शशिकल्पम् / कल्पवृक्षपतिमर्थिनमेनं नाप कोऽपि शतमन्युमिहान्यः // 122 // अन्वयः-अनल: तम् अवतीत्--हे नल, इह अन्यः कः अपि कल्पवृक्षपतिम् शतमन्युम् इस्थम् अर्थिनम् न आप इदम् लब्धम् शशि कल्पम् यशः क्व उज्झसि ? टीका-अनलः अग्निदेवः तम् नलम् अग्रवीत् अवोचत्--'हे नल ! हाम् इह अस्मिन् लोके अन्यः नलाद् भिन्नः कः अपि कश्चिदपि पुरुषः कल्पवृक्षस्य अभिलषितप्रदायकस्य स्वर्गीय. वृक्षविशेषस्य पतिं स्वामिनम् शतं मन्यवो यशा यस्य तथाभूतम् (ब० व्रो० ) (मन्युदैन्ये क्रतो ऋधि इत्यमरः ) इन्द्रम् इस्थम् एवं प्रकारेण अर्थिनम् वाचकम् न आप प्राप्तवान् इदम् एतम् बन्धम् प्राप्तम् शशिकल्पम् चन्द्रसदृशम् शुभ्रम् यशः कीतिं क्व कस्मातोरित्यर्थः उज्झसि जहासि। 'शतमन्युः भूलोके नलं याचितुमागत;' इति स्खया प्राप्यमापं चन्द्रशुभ्रं यशः न त्यक्तव्यमिति भावः / / 125 / / व्याकरण-शशिकल्पम् ईषनः शशिः इति शशि+कल्पप / इत्थम् इदम् +थम् / अन्यः यास्काचार्य के अनुसार 'न आनेयः' इति न+आ+ नी+यत् उपसर्ग और न के ई का लोप ( पृषोदरादित्वात् ) / क्व किम् को (सप्तम्यर्थ में तथा अन्यार्थ में मी का आदेश)। अनुवाद-अग्नि उस ( नल ) को बोला--(हे नल ) तम अपने हाथ में आये हुए चन्द्रसमान ( शुभ्र ) यह यश क्यों ठुकराने जा रहे हो कि इस लोक में (तम से भिन्न ) अन्य किसी के पास कल्पवृक्ष का स्वामी इन्द्र इस तरह अर्थी बनकर नहीं आया / / 122 / / टिप्पणी-यहाँ 'कल्पवृक्षपतिः' यह विशेषण और 'शतमन्युः' यह विशेष्य-दोनों साभिमाय है। पहले से यह ध्वनित होता है कि कल्पवृक्ष तक ने जिसका मनोरथ पूरा नहीं किया उसका मनोरथ

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