Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 371
________________ पञ्चमसर्गः अनुवाद-(हे देवो ! ) वह यह पूर्व जन्म में किए हुए मेरे हो पापों की अधिकता है, जो आप लोगों को वाचामगोचर महिमा से मी टक्कर लेना चाह रही है // 1.4 // टिप्पणी-नारायण के अनुसार इन्द्र के 'कामयेमहि' आदि में प्रयुक्त प्रच्छन्न शापमव-मरे वाक्छल के उत्तर में नल को भी यहाँ वाक्छल-मरी उक्ति है कि 'मैं आप लोगों के 'महिमान' - मही=दमयन्ती के साथ विवाह विषयक उत्सव-मरा मान = अहंकार मिटा देना चाहता हूँ अर्थात् तुम्हारे अहंकार को चूर करने में मैं सर्वथा समर्थ हूँ, इसलिए दमयन्ती प्राप्त करने की जरा मो इच्छा न करो वह मेरी है, मेरी ही रहेगी' / महिमा की जयेच्छा का कारण दुरित बताये है, इसलिए काब्यलिङ्ग है / शम्दालंकारों में 'रता' रिता' 'तान' 'तानाम्' छेक और अन्यत्र वृत्यनुपास है। वित्थ चित्तमखिलस्य न कुर्या धुर्यकार्यपरिपन्थि तु मौनम् / ह्वीगिरास्तु वरमस्तु पुनर्मा स्वीकृतैव परवागपरास्ता // 105 // अन्वयः-(हे देवाः. यूयम् ) अखिलस्य चित्तम् वित्थ, ( तयापि ) धुर्य-कार्य-परिपन्यि मौनम् तु न कुर्याम् , गिरा हीः अस्तु, वरम् , पर-वाक् अपररास्ता स्वीकृता एव तु पुनः मा अस्तु / टीका-(हे देवा: ), यूयम् अखिलस्य विश्वदृश्वनयनत्वात् सर्वलोकस्य चित्तम् मनः विश्थ, नानीथ / एष एनद् दौत्यकर्म न करिष्यति' इत्यपि मम चित्त मवन्ता जानन्त्येवेति भावः, तथापि धुर्य मुख्यम् महत्त्वपूर्णमिति यावत् यत् कार्यम् कृत्यम् ( कर्मधा० ) तस्य परिपन्धि प्रतिकूलम् (प. तत्पु०) दमयन्तीपाप्तिरूपस्य मे महत्वपूर्णकार्यस्य विरोधीत्यर्थः मौनम् तूष्पीमावम् न कर्याम् न करोमि / गिरा कथनेन न करिष्ये इति स्पष्टवचनेनेत्यर्थः ही लज्ना अस्तु स्यात् इति वरम श्रेयः परन्तु परस्य अन्यस्य वाक वचनम् ( 10 तत्पु० ) अपरास्ता अपतिषिद्धा सती स्वीकृता अङ्गीकृता एव तु पुनः किन्तु मा प्रस्तु न स्यात् / 'अप्रतिषिद्धमनुमतं मति' अथवा 'मौनं स्वोकृतिलक्षणम्' इति न्यायेन अप्रतिषिद्धं परवचनं स्वीकार-रूपेण न गृह्येतेति कृत्वा मया वाण्या स्पष्टं प्रतिषेवः क्रियते वः 'दौत्यं न करिष्ये' इति भावः // 105 // म्याकरण-धुर्यम् धुरः याग्यमिति धुर् +यत्। परिपन्थि-यद्यपि 'छन्दसि परिपन्थि-परिपरिणी पर्यवस्थातरि (52 / 86 )' इस सूत्र के अनुसार परिपन्थि शब्द वेद में ही प्रयुक्त होता है, मट्टोत्री दीक्षित ने भी 'लोके तु परिपन्थि शब्दो न न्याय्य:' कह रखा है, तथापि कवि लोगों ने लोक में मी इसका बहुत प्रयोग कर रखा है। अमरकोश में भी 'प्रत्यर्थि परिपन्थिनः' आया हुआ है। मौनम मुने व इति मुनि+अण् / गिरा/गृक्विप् / होः हो+क्विप् [ भावे ) / अनुवाद-( भान्य देवता लोगों ) आप सभी के चित्तों को जानते हो, (तथापि ) मुख्य कार्य का विरोधी भौन मैं नहीं अपनाऊंगा। वापी द्वारा ( स्पष्ट कह देने से ) लज्जा होती हो, वह भी है, किन्तु दूसरे को अनिराकृत बात स्वीकृत नहीं होने देना चाहिये // 105 // टिप्पणो-स्पष्ट व्यवहार अच्छा होता है संकोचवश चुप रहने से आदमो मारा जाता है। स्पष्टवादिता में, सुनने वालों के हृदय में थोड़ी सी कटुना तो अवश्य हो जाती है. किन्तु भविष्ष बिगड़ता नहीं है। यही तथ्य कवि ने यहाँ प्रतिपादित किया है। विद्याधर यहाँ काव्यलिङ्ग कह रहे

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