Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 376
________________ नैषधीयचरिते अन्वयः-प्राप्पिमात्रपणसीम यत् यश आदधीचि दातृकृतार्धम् किल, अहम् तत् प्राप्यतः शतगुणेन प्रियया पणेन कथम् आददे ? टीका-प्रायाः जीवितमेवेति प्राणमाम् पणः मूल्यम् ('पणो मूल्ये घनेऽपि च' इत्यमरः ) सीमा अवधिः ( उभयत्र कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् (ब० वी०) यत् यशः कीतिः दधीचिम् बारभ्येति ( अव्ययी० ) दातृभिः वदान्यैः कृतः विहितः ( तृ० तत्पु० ) अर्घः मूल्यम् / कर्मधा० ) बग्य तथा भूतम् / व० वी० ) ( 'मूल्ये पूजाविधावर्ष' इत्यमरः ) किल वार्ता श्रूयते ( 'वार्ता-सम्मा. व्ययोः किल' इत्यमरः ) दधीचि-पभृति दातृभिः यशप्तः कृते जीवितमेव मूल्यं दत्तम् न ततोऽधिकमिति भावः, अहम् नलः तत् यशः प्राणतः प्राणेभ्यः शतेन शतसंख्यया गुणः गुणनम् श्रावृत्तिरिति यात् ( तृ० तत्पु० ) यस्मिन् तथाभूतेन (ब० वी०) अत्यन्तभधिके नेत्यर्थः प्रियया प्रेयस्या० दमयन्त्या दमयन्तीरूपेणेत्यर्थः पणेन मूलगेन कथम् केन प्रकारेप्प आइदे गृह्णीयाम् यशोमूल्यं प्राणाः दीयन्ते मूल्ये प्राणेभ्यः शतगुणिताम् प्रियामहं यशोऽर्थ न दातुं शक्नोमि तस्म'द् युष्मद्दौत्यं नाङ्गोकरोमी भावः // 111 / / / व्याकरण-पणः ५ण्यते =क्रयविक्रय-व्यवहारः क्रियतेऽनेनेति पण+अप् ( करणे ) / अघः V अर्घ+घञ् / आददे-आ+ vदा+लट् 'आछा - दोऽनास्यविहरणे' ( 163020 ) से मात्मनेपद। ___ अनुवाद-सुनते हैं कि दधीचि ऋषि से लेकर ( सभी ) दाताओं ने जिस यश के मूल्य की ( अधिक से अधिक) सीमा प्राण-मूल्य तक ही ठहरा रखी है, उसे मैं प्राणों से सौगुना अधिक भूल्यवाली प्रियतमा से कैसे ले लूं? // 111 / / टिप्पणी-सौदा हमेशा बराबरी का होता है / एक रुपये की कीमत बाली वस्तु के लिए एक हो रूपया दिया जाता है, न कि सौ रुपये / सौ देने वाला मूखों में गिना जाएगा। यही बात प्रियतमा के सम्बन्ध में मो है ? यश के कीमत की हद प्राण है। प्राणों से सौगुनी कीमतो वस्तु नल के लिए दमयन्ती है / उसे कैसे दे सकता है ? यहाँ प्राण से यश का विनिमय बताया जा रहा है अतः परिवृत्ति अलंकार है जिसके साथ प्राणों और दमयन्ती पर पणत्वारोप होने से रूपकों का संकर हो रखा है। शब्दालंकारों में से 'प्राप्य' 'प्राप्य' 'पण' 'पणे 'पेन' 'णेन' में छेक, द्वितीय-तृतीय पादों में 'यत्' 'तत्' की तुक मिलने से अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / दधीचि-देवासुर-युद्ध के सिलसिले में इन्द्रादि देवता जब वृत्र आदि असुरों से लड़ रहे थे, तो वृत्र का पलड़ा भारी देख इन्द्र घबरा उठा। निदान वह वृद्ध दधीचि ऋषि के पास गया और उनसे सहायतार्थ यह प्रार्थना की कि 'महाराज' पापको फौलादो हड्डियों की मुझे आवश्यकता है जिनसे देव-शिल्पकार वज्र बनाएगा' / ऋषि ने परोपकार हेतु योग-बल से तत्क्षण प्राण त्याग दिये। बाद को उनके अस्थि-पञ्जर से निर्मित वज्र द्वारा इन्द्र वृत्र तथा अन्य असुरों का सहार कर सका। तभी से इन्द्र के वज्र का नाम दधीचास्थि पड़ा है। यहाँ दधीचि का उल्लेख करके नल इन्द्र पर वह प्रच्छन्न व्यङ्गय कस रहा है कि ब्राह्मण दधीचि तक के तुमने प्राण हे रखे हैं क्या अब मुझ क्षत्रिय के भी प्राण, नहीं नहीं प्राणों से भी कई गुना कीमती प्रियतमा, देने जा रहे हो ? धिक्कार है तुम्हें /

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