Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 378
________________ नैषधीयचरिते स० ) उपास्य उपासर्ना पूजामित्यर्थः विधाय प्रथमतः आदौ एव दमयन्तीम् यत् अर्थिताः बाचिताः तत् मस्कृतदमयन्तीयाचनम् व्यतियताम् व्यतिक्रमताम् मद्-याचनमनादृत्य स्वयमेव तदर्थ मयि याचनं कुर्वतामित्यर्थः अपि वः युष्माकम् ह्रीः लज्जा न भवति चेत् तत् तहिं सा होः मम अपि सुतराम् भृशम् न वस्तु मा मवतु / दमयन्तीप्राप्तिनिमित्तम् आदौ मस्कृतां प्रार्थनामतिक्रमन्तो मवन्तो यदि न लज्जन्ते, तहिं मवत्कृतप्रार्थनामपि अतिक्रमन्नहमपि न लज्जे तुल्य न्यायादिति मावः / / 113 // व्याकरण-अवहम् अनु+अहम् 'अनश्च' (5 / 4 / 108) से अन्नन्त अव्ययीभाव समास को टच् / 'दमयन्तीम अर्थिता'- अर्थ के दिकर्मक होने के कारण गौष कर्म 'यूयम्' को कर्मवाच्य में प्रथमा। व्यतियताम् बि+पति+Vs+शत +षष्ठी ब० / सुतराम् सु+तरप् (अतिशये )+आम् ( स्वाथें ) / वाद-प्रतिदिन ( तुम्हारी) उपासना करके मैंने पहले तुमसे दमयन्ती (माप्त करने के लिये को प्रार्थना की थी, उसे ठुकराते हुए भी यदि तुम लोगों को लाज नहीं आती है, तो सुतराम मुझे मी ( तुम्हारी प्रार्थना ठुकराने में ) क्यों लाज आवे ? / / 113 / टिप्पणी-देवताओं द्वारा नल पर उनकी प्रार्थना न स्वीकार करने का दोष मढ़ना तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि इसके दोषी स्वयं देवता लोग ही हैं। जिन्होंने नल को प्रार्थना पहले नहीं स्वीकार की' इसी को संस्कृत में तुल्य न्याय अथवा हिन्दी में जैसे को तैसा' कहते हैं। ताकिकों का कहा हुआ मी है-'उमयोःपर्यनयोक्तव्यस्तादृगर्थविचारणे / / ' देवताओं की प्रार्थना नकारने का कारण बता देने से यहाँ काव्यलिङ्ग है / शब्दालंकार वृत्त्यनुपास है। कुण्डिनेन्द्रसुतया किल पूर्व मां वरोतुमुररीकृतमास्ते / ब्रीडमेष्यति परं मयि दृष्टे स्वीकरिष्यति न सा खलु युष्मान् / / 114 // भन्वयः-कुण्डिनेन्द्रसुनया पूर्वम् माम् वरीतुम् उररीकृतम् आस्ते किल / मयि दृष्टे सति ( सा) परम् व्रीडम् एष्यति / सा युष्मान् न खल स्वीकरिष्यति / टीका-कुण्डिनस्य एतदाख्यनगरस्य इन्द्रः स्वामी भीमभूप इत्यर्थः तस्य सुतया पुत्र्या दम. पन्या ( उभयत्र 50 तत्पु० ) पूर्वम् आदौ माम् नलम् वरीतुम् परिणेतुम् उररीकृतम् स्वीकृतम् भास्ते किलेति वार्तायाम् ( 'वार्तासंभाव्ययोः किल' इत्यमरः ) / मयिनले दृष्टे तया विलोकिते सति परम् अत्यधिक बीडम् लज्जाम् एण्यति प्राप्स्यति, मां दृष्ट्वैव सात्विकभावोदयवशात् भृश लज्जिप्यते इति मावः / सा दमयन्ती युष्मान् भवतः न खलु निश्चितम् स्वीकरिष्यति मनोकरिष्यति / / 115 // व्याकरण-सुता/+क्तः ( कर्मणि)+टाप् ( स्त्रियाम् ) / धरीतम् वृ+तुम् विकल्प से स्टू को दोर्घ / उररीकरण को एक तरह से इच्छार्थक ही समझकर यहाँ तुमुन् दुपा है / ब्रीडः बीड्+घञ् ( भावे ), यद्यपि अधिकतर यह शब्द स्त्रीलिङ्ग (व्रीडा ) रूप में प्रयुक्त होता है, तथापि कवियों ने पुल्लिग-रूप में भी इसका प्रयोग कर रखा है, देखिए कालिदास-बीडभावहति मे स सम्प्रति / ' रघु० 11 / 73, माघ-'ब्रोडादिवाभ्यासगतेविलिल्ये' शिशु० 3 40 /

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