________________ पञ्चमसनः अन्धयः-शुद्धवंशजनितः अपि, शक्र. ऋजुम् सपक्षम् एनम् माशु क्षिप्नुः ( सन् (वंश. जनितः गुणस्य स्थानताम् अनुमान् ऋजुम् सपक्षं सायकम् आशु क्षिप्नुः ) धनुः इस वक्रः अजनि। __टोका-शुद्धः पवित्रः यो वंशः कुलम् ( कर्मधा० ) तस्मिन् जनितः उत्पन्नः ( स० वरप०) अपि कश्यप-ऋषिकुले गृहीतजन्मापोत्यर्थः गुणस्य दयादाक्षिण्यशरत्वविवेकिरवादीनां धर्मापार (जातावेकवचनम् ) स्थानताम् आश्रयत्वम् अनुभवन् प्राप्नुवन् अपि गुणाश्रयो मवन्नपोत्यर्थः शक्रः इन्द्रः ऋजुम् सरलस्वभावम् सपक्षम् मित्रम् लोकपालांशत्वात् स्वजातीयमित्यर्थः एनम नलम आशा शीघ्रम् क्षिप्नुः स्त्रमार्गाद् दूरीकर्ता, दूरीकर्तुमिच्छुरिति यावत् सन् शुद्ध निव्रणे दृढे इति याच वेषो जनितः शुद्धवंशनिर्मित इत्यर्थः ( 'वंशो वेणो कुले वर्ग' इति विश्वः ) गुणस्य मोाः ( 'मौष्या द्रव्याधिते सरवशौर्यसंध्यादिके गुणः' इत्यमरः) स्थानताम् आश्रयत्वम् अनुमवन् मौनीयता सन्नित्यर्थः ऋजुम् सरलम् अवकमिति यावत् सपक्षम् पक्षेण पत्रेण पुढेनेति यावत् ( 'गत पक्षग्छदाः पत्रम्' इत्यमरः) सह वर्तमानम् ( ब० वो०) सायकम् वायम् आशु विप्नुः प्रक्षेसा प्रक्षेप्त मुबत इत्यर्थः धनुः चाप इव वक्रः क्रूरः अथ च जिह्मः अजनि अमवत् ) वाप-प्रक्षेपणाय धनु र्यथा वक्रो भवति, तथैव इन्द्रोऽपि नलप्रतारणाय वक्रो भूत इति सरलार्थः / / 102 // ___ण्याकरण-जनित जन् +णिच+क्तः (कर्मणि) / शक्रः शनोतीति Vशक+रः। सायकः स्यति ( अन्तं करोति ) इतितो +ण्वुल, वु को प्रक। विप्नुः क्षिपतीति /क्षिप+क्नः ( कतरि ) इसके योग मे 'न लोका:०' (2 / 3 66 ) से षष्ठी-निषेध होकर कर्मणि द्वि है। 'धनुश्चापो' इस अमरकोश के आधार पर धनुस शब्द नपुंसक के साथ-साथ पुंल्लिङ्ग मो हुआ करता है / प्रजनि /जन्+तु कर्तरि ) / 'अनुवाद-अच्छे वंश ( कुल ) में जन्मा हुआ मी, (तथा ) ( अपने को ) गुणों का प्राश्रय अनुमव करता हुआ मी इन्द्र ऋजु ( मोले स्वमाव वाले), सपझ (मित्र ) इस (नल)को शोत्र (अपने रास्ते से ) परे फेंक(ना चाहता हुआ ऐसा वक्र ( कुटिल ) बन गया जैसे कि अच्छे वंश बाँस ) से बना हुआ, गुण ( प्रत्यञ्चा ) का आश्रय लिए हुए धनुष ऋजु (सीधे) और समक्ष (पंख वाले ) बाण को फेंकता हुप्रा वक्र (तिरंछ। ) बन जाता है / / 102 // टिप्पणी-यहाँ स्वयं कवि इन्द्र के सरकुलोत्पन्न और गुणाश्रय होते हुए भी उसकी अपने ही मित्र नल को दून बनाकर अपने प्रणय मार्ग से हटा देने को षड्यन्त्र-मरी काली करतूतों पर छींटाकसी कर रहा है। आश्चयं है देखिए प्रतिनायक प्रपय-प्रतियोगिता में कितनी नीचता पर उतारू हो जाता है / यहाँ इन्द्र को धनुष के साथ श्लिष्ट भाषा में तुलना को जाने से श्लिष्टीपमालंकार है। मल्लिनाथ के शब्दों में-'अत्र प्रकृताप्रकृतश्लेषः, स चोरमया संकोयते' / 'शक्रः' 'वक्रः' में पादान्तगत अन्त्यानपास, 'जनितो' 'वाजनि' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। तेन तेन वचसैव मघोनः स स्म वेद काटं पटुरुन्चैः / आवरत्तदुचितामथ वाणीमार्जवं हि कुटिलेषु न नीतिः // 103 // .