Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 365
________________ पश्चमसर्गः 365 बालिशौ' इत्यमरः) (कर्मधा० ) तस्मात् मत्त इत्यर्थः मनीषितम् अभीप्सितम् अस्ति, तेन वस्तुना सः अयम् एव नरडिम्मः वः युष्माकम् चरणम् पादम् अचेतु पूजयतु, उच्यता स्वामिलापम् , प्राप्णपणेनापि तमहं पूरयिष्यामीति मावः / 68 // व्याकरण-जीवितम् जीव+क्त (मावे)। मनीषितम्-मनीषा ( इच्छा) अस्य संजा. वेति मनीषा+इतन् / प्रचंतु ( धादि ) / व्रत सारा वाक्यार्थ इस क्रिया का कर्म बना हुआ है। अनुवाद-जीवन तक अथवा ( उससे मो ) अधिक जो कुछ मो ( वस्तु ) आप लोगों को इस नर बालक से वान्छित हो, उसके द्वारा वह यह ( नरबालक ) आपके चरण की अर्चना करे, किन्तु बोलिए वह ( वस्तु ) क्या है ? // 97 // टिप्पणी-नरडिम्म, चरण-इन दोनों शब्दों से नल ने अपनी नम्रता और असामर्थ्य व्यक्त किया है। 'मैं हूँ तुच्छ नरबालक, और आप ठहरे सर्व-समर्थ देवता लोग; आपके दोनों चरणों को अर्चना करने की मुझ में भला क्या सामर्थ्य हो सकती है 1 प्राणों तक मी देकर एक ही चरण मी यदि पूज सकूँ, तो इतना ही पर्याप्त है। 'वधि' 'प्यधि' और 'वस्तु' 'रस्तु' में पदान्तगत अन्त्य'नुमास है / विद्याधर इन्हें छेक के भीतर ला रहे हैं। दोनों का सन्देह-संकर कह सकते हैं / अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। एवमुक्तवति मुक्तविशके वीरसेनतनये विनयेन / वक्रभावविषमामय शक्रः कार्यकैतवगुरुर्गिरमूचे // 9 // अन्धयः-वीत विशङ्के वीरसेन-तनये विनयेन एवम् उक्तवति सति अथ कार्यकैतव-गुरुः शक्रः वक्रमाव-विषमाम् गिरम् कचे। टीका-वीताः विगताः विविधाः शङ्काः ( कर्मधा० ) यस्मात् तथाभूते (ब० वी० ) वीरसेनस्य एतत्संशकमहोपस्य तनये पुत्रे (प० तत्पु० ) नले इत्यर्थः विनयेन विनम्रतया एवम् उक्तप्रकारेप्प उक्तवति कथितवति सति अथ अनन्तरम् कार्येषु करणीयेषु अर्थेषु यानि कतवानि कपटानि ( स० तत्पु० ) तेषां गुरुः आचार्यः (10 तत्पु०) धूर्तराज इत्यर्थः शक्रः इन्द्रः वक्रस्य भावः वृत्तिः वक्रस्वम् कौटिल्यमिति यावत् (10 तत्पु० ) अथवा वक्रश्चासौ मावः ( कर्मधा० ) तेन विषमाम् सदोषाम् अथ च दुर्बोधाम् गिरम् वाणीम् ऊचे उवाच / इन्द्रो न केवलं नलम् , अपि तु स्वीयान् अनुगामिनो देवानपि प्रतारयन् कौटिल्यभरितां वाचम् प्रायुक्त इत्यर्थः / / 68 // व्याकरण-तनयः तनोति ( विस्तारयति ) कुलमिति निम्+कयन् / उक्तवति वच+ क्तवत् , संप्रसारण, सत्सप्तमी / कैतवम् कितवस्य (घूर्तस्य ) भाव इति कितव+अण् / शक्रः शक्नोतीति Vशक् +रक / ऊचे वच+लिट / शक्नोतीति /शक्+रक / ऊचे वच् +लिट् / अनुवाद-समी तरह की शंकाओं से विमुक्त वीरसेन-पुत्र (नल ) के विनय-पूर्वक इस प्रकार कह चुकने पर, बाद को काम बनाने में कपटाचार्य इन्द्र कुटिलता से दूषित एवं दुर्बोध वापी बाला // 98 // टिप्पा -साधारणतः सभी प्रतिनायक धूर्त ही हुआ करते हैं। सभी अन्य प्रकार के हथकंडे

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