Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 364
________________ 334 नैषधीयचरिते प्रत्यतिष्ठिपदिलां खलु देवी कर्म सर्वसहनव्रतजन्म / यूयमप्यहह पूजनमस्या यन्निजैः सृजथ पादपयोजैः // 16 // अन्वयः-सर्व-सहन व्रत-जन्म कर्म इलाम् खलु देवीम् प्रत्यतिष्ठिपत्, यत् प्रहह ! यूयम् मपि मिजेः पाद-पयोजः अस्याः पूजनम् सृजथ / टीका-सर्वेषाम् निखिलानां पदार्थानां जीवानाश्च यत् सहनम् मारोद्वहनम् (10 तत्पु.) एव प्रतम् नियमः ( कर्मधा० ) तस्मात् जन्म उत्पत्तिः ( पं० तत्पु० ) यस्य तथाभूतम् (ब० वी० ) कर्म मुकृतमित्यर्थः इलाम् पृथिवीम् ('गोरिला पृथिवी क्षमा' इत्यमरः ) खलु निश्चयेन देवीम् देवीत्ववतोम् देवीत्वपदे इत्यर्थः प्रत्यतिष्ठिपत् प्रतिष्टापयामास, पृथिव्या हि 'सर्वसहा, क्षमा' इत्यादि-नामधेयः सर्वमारसहत्वं सर्वविदितमेव, एतदेवारया महत्सुकृतम् येनेयम् देवीपदे प्रतिष्ठापिताऽस्तीत्यर्थः यत् यस्मात् अहह ! आश्चर्यमस्ति यूयम् भवन्तो दिक्पालाः सन्तोऽपि, पृथिवीम् अस्पृशन्तोऽपि च / 'अभूमिस्पृशो हि देवाः' ) अपि निजैः स्वकीयः पादाः चरणा एव पयोजानि कमलानि तैः (कर्मधा० ) अस्याः पृथिव्याः पूजनम् अर्चनाम् सृजथ कुरुथ / देवाः कुसुमैः पूज्यन्ते एष, भवत्कृतपूजाकरपात् अस्याः देवीवं सिद्धमेवेति भावः // 96 / / व्याकरण-सर्व यारकाचार्य के अनुसार 'संसृतं मवतीति ( निपातनात् साधुः ) / कर्म क्रियते इति/+मनिन्। प्रत्यतिष्ठिपत् पति+/स्था+पिच् + लुङ् / पादः पद्यते इति / पद्+घञ् ( कर्तरि ) / पयोजम् पर्यास जायते इति पयस् +/जन्+डः / अनुवाद-सब कुछ सहन कर जाने के व्रत से उत्पन्न कर्म (पुण्य ) ही सचमुच पृथिवी को देवी-पद पर बिठा गया है; तमी तो आश्चर्य हो रहा है कि आप लोग तक भी अपने चरण कमलों से (पृथिवी) देवी की अर्चना कर रहे हैं // 16 // टिप्पणी-सहनशीलता और क्षमा बड़े मारी गुण होते हैं / यही मानव को देवत्व प्रदान करते हैं और जगद्-बन्ध बना देते हैं। यहाँ विद्याधर खलु शब्द को निश्चयार्थक न लेकर सम्भावना के रूप में ले रहे हैं अर्थात् सर्वसहन व्रत के कारण मानो पृथिवी देवी बनी है। ‘पाद-पयोज' में रूपक है। इसके साथ ही हमारे विचार से पर्यायोक्त भी है। 'आप लोगों का भूलोक पाने का क्या कारण है ?' इस बात को यहाँ घुमा फिराकर इस तरह व्यक्त किया गया है कि भाप लोग कैसे पृथिवी देवी की निज चरण-कमलों से अर्चना करने आये हैं ? जहाँ कोई बात सीधी न कहकर भङ्गयन्तर से कही जाय, वहाँ पर्यायोक्त अलंकार होता है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। जीवितावधि किमप्यधिकं वा यन्मनीषितमितो नरडिम्मात् / तेन वश्चरणमर्चतु सोऽयं ब्रत वस्तु पुनरस्तु किमीक् / / 97 // अन्वयः-जीवितावधि अधिकम् वा यत् किम् अपि ( वस्तु ) इत: नर डिम्भात् मनीषितम् (अस्ति) तेन सः अयम् वः चरणम् अर्चतु; ईदृक् ( वस्तु ) किम् पुनः अस्थ ? ब्रत / टीका-जीवितम् प्रायाः अवधिः सीमा ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् ( ब० बी० ) अधिकम् प्राणेभ्योऽप्यधिकम् वा यत् किमपि वस्तु इतः अस्मात् नरश्वासौ डिम्मः शिशुः ( 'डिम्भौ शिशु

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