Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 361
________________ पञ्चमसर्ग: अधमणः अधमः+ऋष्पः / ऋ+क्त ( कर्तरि ) त को न, न को थ, (मावे ऋणम् ) / पारलौकिकम् परलोक+ठ उमयपदवृद्धि। अनुवाद-इस लोक में एक ( वस्तु ) लेने वाला ( और ) स्वर्ग में करोड़ गुना देने वाला याचक रूपो कर्जदार पुण्यों से पारलौकिक सूदको स्थायी बनाने के लिए यदि मिलता है, तो सन्नन को ( ही मिलता है ) // 42 // टिप्पणी-पुण्यैः इसको सज्जन के साथ मी लगाया जा सकता है अर्थात् ऐसा कर्जदार पुण्यों से सज्जन को ही मिल सकता है / साधु-मल्लिनाथ साधु शब्द को श्लिष्ट मानकर इसका दूसरा अर्थ वाईषिक = सूदखोर मी लेते हैं ('साधुः त्रिषु हिते रम्ये वाधु षौ सज्जने पुमान्' इति वैजयन्ती) और साधु सज्जन रूपी साधु = साहूकार अर्थ करते हैं / जब दान पात्र पर अधर्मपस्व का आरोप है तो साधु पर उत्तमपत्व का आरोप भी ठीक ही है। इसीलिए विद्याधर ने यहाँ दो विभिन्न साधुओं का अमेदाध्यवसाय होने से मेदे अमेदातिशयोक्ति कही है। हमारे विचार से इन दोनों आरोपों में कार्यकारणभाव होने से श्लिष्ट परम्परित रूपक है। अन्य सूदखोरों के 'वस्त्र-धान्य हिरण्यानां चतुस्विंद्विगुणा मता' इस नियम के अनुसार कर्जदारों से अधिक से अधिक चौगुना सूद लेने की सोमा नियत कर रखो है, किन्तु यह कैसा विलक्षण चक्रवृद्धि ब्याज है कि दानपत्र-रूपी कर्जदार साहूकार से एक लेकर परलोक में इसका करोड़ गुना दे देता है-इस तरह साधारण कर्जदारों से अतिशय बताने के कारण व्यतिरेक मी है। 'कृतैः' 'क' 'कुसीद' 'मसीद' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। एवमादि स विचिन्स्य मुहूर्त तानवोचत पतिर्निषधानाम् / अर्थिदुर्लममवाप्य च हर्षाद्याच्यमानमुखमुल्लसितभि॥ 93 / / अन्वयः-स निषधानाम् पतिः एवम् आदि मुहूर्त विचिन्त्य अथिदुर्लमम् याच्यमान-मुखं उल्लसितमि अवाप्य सहर्षान् तान् अवोचत / टीका-स निषधानाम् निषधाख्यदेशस्य पतिः स्वामो नलः एवम् 'जीवितावधि' आदौ यस्य तथाविधम् ( ब० वी० ) पूर्वोक्तं मुहर्तम् क्षणं विचिन्त्य विचार्य अर्थिभिः याचकैः दुर्लभम् दुष्पापम् ( तृ० तत्पु. ) याज्यमानस्य यजमानस्य दातुरित्यर्थः मुखम् वक्त्रम् (प० तरषु० ) उल्मासिता उदिता श्रीः शोभा ( कर्मधा० ) यस्मिन् तथाभूतम् (ब० वी० ) अवाप्य प्राप्य दृष्टवेत्यर्थः हर्षेण प्रसन्नतया सहितान् सहर्षान् प्रहृष्टानित्यर्थः तान् इन्द्रादिदेवान् भवोचत् उवाच / याचना मविष्यतोति मावः 13 // न्याकरण महतम् (कालात्यन्तसंयोग में द्वि०)। अवोचत/+छुङ् ब्र को वचादेश / निषधानाम् देशवाचक होने से ब० व० / दुर्लभ दुर् + लम् +खलू / यायमान या+ शानच् ( कर्मणि ) / अनुवाद-इस तरह थोड़ी देर सोच कर वह निषध नरेश याचकों को दुर्लम यजमान का मुख ( हर्ष में ) शोमा से खिला हुआ पाकर प्रसन्नता को प्राप्त हुए उन (देवताओं) से बोले // 93 //

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