________________ नैषधीयचरिते हम् भपि पथिव्यां पाताले च युद्ध स्यादिति चिन्तयामि। [एवं पाताले गतस्य ममेयं चिन्ता भवति अपि पृथिव्यां स्वगै वा युद्ध स्यादिति ] एवं सततं युद्ध-दिदृक्षा मां व्याकुलीकरोतीति भावः / / 41 / / ज्याकरण-स्वारसा+स्वर् +रसा०, पूर्व र का लोप और स्व के अ को दीर्घ / पाहवः आहूयन्ते भटा अत्रेति आ+/+अप ( अधिकरणे ) / शङ्की-शक् + णिनिः (ताच्छील्ये)। वसुमती वसूनि रत्नादीनि धनानि अरया सन्तीति वसु+मतुप + ङोप / प्राजिः अजन्ति (गच्छन्ति) मटा अस्यामिति- अज+इण ( मधिकरणे ) / अनुवाद-(हे इन्द्र, ) पृथिवी में रह रहा मैं स्वर्ग और पाताल में होने वाले युद्ध की शंका रखे हुए चैन से नहीं रहता / स्वर्ग आता हूँ तो मेरी पृथिवी और पाताल-दोनों लोकों के योधाओं के युस की सम्भावना बेकार सिद्ध हो जाती है / ( इसी तरह पाताल जाता हूँ, तो स्वर्ग और पृथिवी में युद्ध देखने की व्यर्थ की संभावना से अकुला उठता हूँ) // 41 // टिप्पणी-यहाँ कवि ने नारद की प्रकृति का चित्रण किया है, जिसे हम पीछे श्लोक 1 में नारद शब्द की व्युत्पत्ति में स्पष्ट कर चुके हैं / नारद की बेचैनी का कारण बताने से काव्यलिङ्ग है। 'बस' 'सु' में छेक, 'दकः' 'तर्कः' में पादान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / वीक्षितस्त्वमसि मामथ गन्तुं तन्मनुष्यजगतेऽनुमनुष्य / किं भुवः परिवृ ढा न विवोढुं यत्र तामुपगता विवदन्ते // 42 // अन्धयः-(हे इन्द्र, ) त्वम् ( मया ) वीक्षितः असि / तत् अथ माम् मनुष्य-जगते गन्तुम् अनुमनुष्व / तत्र ताम् विवोढुम् उपगताः भुवः परिवृढाः न विवदन्ते किम् ? / टोका-(हे इन्द्र, ) त्वम् ( मया ) वीक्षितः दृष्टः असि तव दर्शनं जातमित्यर्थः ( युद्ध स्वत्र न वीक्षितम् ) तत् तस्मात् अथ अनन्तरम् माम् मनुष्याणाम् मानाम् जगते लोकाय मर्त्यलोकाये. त्यर्थः (10 तत्पु० ) गन्तुम् प्रयातुम् अनुमनुष्व अनुमन्यस्व गन्तुमनुमति देहीत्यर्थः / तत्र मर्त्यलोके पृथिव्यामिति यावत् ताम् दमयन्तीम् विवोदुम् परिणेतुम् उपगताः समायाताः भुवः पृथिव्याः परिधूढाः प्रभवः ('प्रभुः परिवृढोऽधिप:' इत्यमरः ) राजान इत्यर्थः न विवदन्ते कलहायिष्यन्ते किम् ? अपि तु कलहायिष्यन्ते एवेति काकुः / 'अहमेनां परिणेष्यामि', 'अहमेनां परिणेष्वामी'स्यहमहमिकया दमयन्तीमधिकृत्य प्रवर्तमानात् विवादात अनन्तरम् राशी युद्धम् अवश्यं भविष्यति, यद् दृष्ट्वाऽहमानन्दिष्यामीति भावः // 42 // व्याकरण-वीक्षितः-वि+Vई+क्तः ( कर्मपि ) / जगते--'गत्यर्थकर्मणि० (2 / 3613) से चतुर्थी / विवोदुम्--वि+व+तुमुन् / परिवृढा--परि+Vवृह + क्तः 'प्रभो परिवृढः' (7 / 2 / 21 ) से निपातित / विवदन्ते–'वासनो.' ( 1 / 3 / 47 ) से विमति अर्थ में आत्मने और वर्तमानसामीप्य में वर्तमानवत् प्रयोग हो रखा है। __ अनुषाद-(हे इन्द्र, ) तुम्हारे दर्शन हो गये हैं ( यद्यपि युद्ध के नहीं ) / तो अब मुझे मयंठोक जाने की अनुमति दो। वहाँ उस ( दमयन्ती ) से विवाह करने हेतु आये हुए भू-पतियों में काह नहीं होगा क्या ? // 42 //