Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 347
________________ पञ्चमसर्गः 347 विमः जानीमः पश्याम इति यावत् , वीरसेनस्येव आकृतिः शोमा च त्वयि लक्ष्यते, अतस्त्वं तत्पुत्रा प्रतीयसे यतः, पुत्रः प्रायः पितृ-सदृशो मवत्येवेति मावः // 74 // व्याकरण-सर्वतः सर्व+तसिल् / प्रतिमा प्रति+/मा+अ+टाप् / प्रासनम् आस्यते (स्थीयते ) अत्रेति/आस् + ल्युट् ( अधिकरणे ) / नृपतिः नृणाम् ( नराणाम् ) पतिः इति। न नरतीति /नृ+क्विप् / अनुवाद-'तुम समी तरह से राजी-प्रसन्न तो हो न ? वह नल तुम ही हो ऐसा हमारा अनुमान है, ( क्योंकि ) मेरे आसन के आधे माग के मागी मित्र महाराज वीरसेन की शोमा हम तुममें पा रहे हैं' // 74 // टिप्पणी-सर्वतः-शारीरिक दृष्टि से मो और राजनैतिक दृष्टि से मो / राजनीति में राज्य के मुख्य सात अङ्ग हुआ करते हैं-'स्याम्यमात्य-सुहृत्-कोश-राष्ट्र-दुर्ग-बलानि च' (अमरकोश ) अर्थात राजा, मन्त्री, मित्रमण्डल, खजाना, राष्ट्र, किले तथा सेना। रेखाम्-कुछ टोकाकार इससे आकृति लेते हैं किन्तु नारायण के अनुसार यह एक तरह की शारीरिक शोमा हुआ करती है, जिसे अलंकार शास्त्रियों ने इस प्रकार स्पष्ट कर रखा है-'उपमानोपमानं या भूषषस्यापि भूषणम् / अङ्गश्रीः कथ्यते रेखा चक्षुःपीयूषवर्षिणी' // पुत्र में पिता की अनुहार स्वामाविक है देखिए वश्चकराज इन्द्र प्रतिनायक वनकर नायिका को हथियाने के लिए नायक को ही साधन बनाता हुआ किस तरह अपने लिए रास्ता साफ करने की चालाकी से उपक्रम कर रहा है। 'नृपतेरिव' में उपमा है। विद्याधर यहाँ हेतु अलंकार मी कहते हैं। क प्रयास्यसि नलेत्यलमुक्त्वा यात्रयात्र शुमयाजनि यन्त्रः / तत्तयैव फलसत्वरया त्वं नावनोमिदमागमितः किम् // 75 // अन्धयः-हे नल, क्व प्रयास्यसि ? इति उक्त्वा अलम् , यत् नः अत्र यात्रया शुमया अननिः तत् फल-सत्वरया तया एव (स्वम् ) इदम् मध्वनः अर्धम् न श्रागमितः किम् ? टीका-'हे नल, क्व कस्मिन् प्रदेशे प्रयास्यसि गमिष्यसि इति उक्त्वा कथयित्वा अलम् खलु, अर्थात् प्रश्न एष न युक्तः यत् यस्मात् ना अस्माकम् भन्न अस्मिन् भूलोके यात्रया प्रयायेन आगमने. नेति यावत् शुभया मुलक्षणपूर्वया प्रजनि जातम् , तत् तस्मात् फले परिणामे सत्वरया वरया सह वर्तमानया (ब० वी० ) स्वरापूर्षया झटिति फलोन्मुख्या इत्यर्थः तया यात्रया एव इदम् एतत् अश्वनः मार्गस्य अधम् अर्धभागम् मध्येमार्गमित्यर्थः त्वम् न प्रागमितः प्रापितः किम् ? अपि तु आग मत एवेति काकुः। मध्येमार्ग त्वां लब्ध्वा अस्माकं यात्रा शुमा जाता या फलोन्मुखी सती तापस्माकं सम्मुखमानीतवती, स्वं स्वकार्यार्थ न गच्छति अपि तु अस्मत्कायें सहायतादानार्थमेवागतोऽसीति' मावः // 75 // व्याकरण-उबरवा अलम् प्रतिषेधार्थक अलम् अव्यय के साथ क्त्वा प्रत्यय ('अलंखल्त्रोः प्रतिपेषयोः प्राची क्वा' 3 / 4 / 45) / अजनि/अन्+लुङ, च्छि को चिण ( कर्तरि ) / श्रागमिता पा+ गम् +पिच्+क्तः ( कर्मणि ), गत्यर्थ में पिजन्त को द्विकर्मकता /

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