Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 356
________________ 351 नैषधीयचरिते (स०स०) ग्यस्य धनस्य दानस्य वितरणस्य विधिः विधानम् ( उभयत्र प० तत्पु०) कुश जक एतत्प्रकारेण आह कथयति–'अर्थिने याचकाय तृणवत् तृपमिव तृणवत् तुच्छं मत्वेत्यर्थः धनमात्रम् म न केवलं धनम् एव, किन्तु अपि तु जीवनम् प्राप्या अपि प्रतिपाद्यम् देयम् दात्रा याचकेभ्यः तृणवत् धनमेव न देयम् प्रत्युत आवश्यकतायामापतितायाम् प्राणा अपि देयो इति भावः ) / / 86 / / व्याकरण-कुशवत् कुश+मतुप, तथा कुशम् इवेति कुश+वत् ( सादृश्यार्थ) / ०दायी दापयितुं शीलमस्येति /दा+पिच्+पिन् ( कर्तरि ) / उतिः/वच्+क्तिन् ( मावे ) / विदग्धः वि+/दह्+क्त ( कर्मणि ) अच्छी तरह से जला हुआ, परिपक्व, निपुण / विधिः विदधातीति वि+Vधा+कि (कर्तरि)। धनमात्रम् धन+मात्रच् / प्रतिपाद्यम् प्रति+/पद्+पिच+यत् / अनुवाद-कुश-सहित ( संकल्प में याचक को ) जल देने का प्रेरक, वचन में चतुर द्रव्यदान विधायक शास्त्र ऐसा कहता है-'याचक को तृणवत् धन ही नहीं, प्रत्युत प्राण तक भी दे देने चाहिए' // 86 // टिप्पणी-'कुशलवत्सलिलोपेतं दानं संकल्पपूर्वकम्' इस दान-विधि-वाक्य को नल इस तरह व्याख्या करते हैं कि कुश और जल हाथ में लेकर जो दान देने का शास्त्र-विधान है, वहाँ 'कुशवत्' और 'सलिल' शब्दों में शास्त्र ने श्लेष रखकर यह ध्वनित किया है कि जब दान दो, तो कुश अर्थात् तण की तरह देय द्रव्य को समझो, उसका जरा मी मोह न करो। इसी तरह सलिल शब्द से जीवन विवक्षित है, क्योंकि 'जीवनं भुवन जलम्' इस अमरकोश के अनुसार जीवन शब्द जल का पर्याय होता है / तुच्छ समझ कर द्रम्य दो, आवश्यकता पड़े तो जीबन तक मी दे दो। कुश को तुच्छातितुच्छ तप का और 'सलिल' को कीमती सेमी कीमती जीवन का प्रतीक बनाकर शास्त्र का यही तात्पर्य है, अन्यथा दान देने में मला कुश और जल का क्या उपयोग ? इसे वस्तु-ध्वनि समझिए। द्रव्यदान-विधि का यहाँ चेतनीकरण होने से समासोक्ति है अथवा विद्याधर के अनुसार उत्प्रेक्षा हो सकती है, क्योंकि कवि ने द्रव्यदान-विधि पर यह कल्पना को है कि मानो वह अपना तात्पर्य बोल रही हो / वाचक पद के अभाव में यह गम्योत्प्रेक्षा ही कही जाएगी। शब्दालंकार वृत्त्यनुपास है। पङ्कसङ्करविगर्हितमहं न श्रियः कमलमाश्रयणाय / अर्थिपाणिकमलं विमलं तद्वासवेश्म विदधीत सुधीस्तु // 87 // अन्वयः-पङ्क-संकर-विगहितम् कमलम् श्रियः आश्रयणाय अहम् न ( भवति ); सत् सुधीः विमलम् अथि-पापि-कमलम् तद्-वास वेश्म विदधीत / टीका-पस्य कर्दमस्य अथ च पापस्य ( 'पकोऽस्त्री कर्दमैनसोः' इति वैजयन्ती ) संकरेग मिश्रणेन सपकंप्त्यर्थः ( प. तत्पु० ) विगहितम् विनिन्दितम् ( तृ० तत्पु० ) कमलम् पंकजम् मियः लक्ष्मीदेव्याः अथ च सम्पदः आश्रयणाय निवासाय अहम् उचितम् न, भवति, पङ्कमरित स्थानं न कोऽपि देवः आधयतीत्यर्थः अथ च पाप-सम्बन्धेन गहिंतं स्थानम् धनोपयोग-योग्यं न भवति, सत् तस्मात् सुधीः मु= शोमना धीः मतिर्यस्य तथाभूतः (प्रादि ब० वी०) विद्वान् बुद्धिमानित्यर्थः

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