________________ 354 नैषधीयचरिते बाधा ही होता है। गीताकार ने मो सात्विक, राजस और तामस मेद से दान के तीन प्रकार कहे 1 जिसके विस्तृत विवरण के लिये गीता का 17 वा अध्याय पढ़िए / विद्याधर यहां अतिशयोक्ति कह रहे हैं वो हम नहीं समझ पाए / 'मीयताम्' दीयताम् में पादादि-गत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। प्रापितेन चटुकाकुविडम्बं लम्भितेन बहुयाचनलज्जाम् / भर्थिना यदघमर्जति दाता तन्न लुम्पति विलम्ब्य ददानः // 84 // भन्धयः-चटु-काकु-विडम्बम् प्रापितेन, वहु-याचन-लज्जाम् लम्भितेन अर्थिना विलम्ब्य ददानः दाता यत् अघम् अर्जति, तत् न लुम्पति।। टीका-चटु प्रिय-मधुरं वाक्यं च काकुः कण्ठध्वनिमेदेन दीनवाक्यम् चेति ( इन्द्र ) ताभ्याम् विडम्बम् विडम्बनाम् अवमाननामिति यावत् प्रापितेन गमितेन स्वं प्रति प्रियं दीनं च वाक्यं वाद. यित्वा हास्यता नीतेनेति मावः, बहु बहुवारं यत् याचनम् प्रार्थनम् (कर्मधा० ) तेन लज्जाम अपाम् लम्भितेन गमितेन, वाचा बार-बारं-याचनया हपितेनेत्यर्थः अर्थिना याचकेन ( करपेन) विलम्ब्य विलम्ब कृत्वा ददानः दानं कुर्वन् दाता दानी यवाघम् पापम् अर्जति अर्जयति, प्राप्नो. तीत्यर्थः तत् अघम् न लुम्पति स न अपाकरोति, तत् तेन अपाकर्तुं न शक्यते इत्यर्थः, याचकेन चाटुकारिताम् अकारयित्वा, तं हास्यता परामवश्चाप्रापय्य बिना बिलम्बेन दानं कर्तव्यमिति भावः // 4 // न्याकरह-विडम्बः /विडम्ब+अप ( भावे ) / प्रापितेन प्र+ आप+पिच्+क्तः ( कर्मणि ) / बम्मितेन लभ+पिच्+क्तः, मुमागम / ददानः द+शानच् ( कर्तरि ) / अनुवाद-चिकनी-चुपड़ी ( और ) दानता मरी वाणी ( बुलवाने ) से अपमानित ( तथा ) अनेक बार याचना करते रहने से लज्जित किये हुए याचक से बिलम्ब-पूर्वक दान देने वाला व्यक्ति बो पाप कमाता है, उसे ( वह ) नहीं मिटा ( सकता ) है // 84 // टिप्पणी-वैसे तो दान देने से दाता को पुण्य मिलता है, किन्तु वह तभी यदि वह सादर दान दे। 'याचक को झिंका-झिकाकर तरह-तरह से अपमानित और लज्जित करके दिए हुए दान से पुण्य तो क्या मिलना उल्टा ऐसा पाप मिलता है, जिसे वह त्रिकाल में भी नहीं धो सकता / गीताकार ऐसे दान को तामस दान के अन्तर्गत करते हैं-असत्कृतम् अवशातम् तत् (दानम् ) तामसमुदाहृतम् / 1722 / यहाँ 'अथिना' और 'दाता' कारकों के साय अनेक क्रियाओं का योग होने से कारकदीपक अलंकार है / 'प्रापितेन' 'लम्भितेन' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्यनुपास है। यत्प्रदेयमुपनीय वदान्यैर्दीयते सलिलमर्थिजनाय / अर्थनोक्तिविफलत्वविशङ्कानासमूछनचिकित्सितमेतत् // 85 // अन्वयः–वदान्यैः प्रदेयम् (वस्तु ) उपनीय अथि-जनाय थत् सलिलम् दीयते, एतत् अर्थनो. चिकित्सितम् // 85 // टीका-वदान्यः महादानिमिः- ('स्युर्वदान्य-स्थूललक्ष्य-दानशौण्डा बहुप्रदे' इत्यमरः) प्रदेयम् प्रदातुं योग्य वस्तु अपनीय समीपे आनीय अथों चासो जनः ( कर्मधा० ) तस्मै यद