Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 351
________________ पञ्चमसर्गः सभी धोरोदात्त नायकों का ऐसा ही स्वभाव हुआ करता है। नल भी धीरोदात्त नायक है। इसी बात को लेकर कवि 15 श्लोकों में नल की प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है। विद्याधर ने 'स्वम्' पर स्फुटकदम्ब-कदम्बत्व का आरोप मानकर यहाँ रूपक कहा है, 'अर्चनार्थमिव' में उत्प्रेक्षा और 'प्रणामकरणात्' में आर्थ अपडव मानकर अपहति कही है। मल्लिनाथ 'स्फुटकदम्बकदम्बमिवेत्युत्मक्षा' कहते हैं / विद्याधर ने निमित्तोत्प्रेक्षा कही है जब कि मल्लिनाथ ने वस्तूत्प्रेक्षा। हमारे विचार से तो यहाँ उपमा है, क्योंकि राजा के रोमाश्चित शरीर का विकसित कदम्ब पुष्पों के साथ सादृश्य वास्तविक है, कल्पित नहीं। ( कदम्ब पुष्पों में भी विकसित होने पर रोमों की तरह लंबे 2 रेशे उठ जाते हैं। इसलिए प्रणाम करते हुए राजा ने अपना रोमाञ्चित शरीर देवताओं के चरणों पर इस प्रकार समर्पित कर दिया जैसे पूजा हो ) कदम्बपुष्प-समूह लोग देवताओं के चरणों पर समर्पित किया करते हैं। 'कदम्ब' 'कदम्ब' तथा 'रप्पा' 'रणा' में यमक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / दर्लभ दिगधिपः किममीभिस्तादृशं कथमहो मदधीनम् / ईदृशं मनसिकृत्य विरोधं नैषधेन समशायि चिराय // 8 // अन्वयः-'अमीमिः दिगधिपैः दुर्लभम् किम् ? तादृशम् ( वस्तु ) कथम् मदधीनम् ? इत्यहो / ईशम् विरोधम् मनसिकृत्य नैषधेन चिराय समशायि / टोका-श्रमीमिः एतैः दिशाम् आशानाम् अधिपैः अधिपतिभिः दिक्पालैरित्यर्थः ( 10 तरपु.) दुल मम् दुःखेन लभ्यम् दुष्प्रापम् (प्रादि समा० ) किम् ? न किमरीति काकुः। ताशम् तथाविधम् देवदुर्लभम् वस्तु च कथम् केन प्रकारेण मम अधीनम् ममायत्तम् ( प० तत्सु० ) 1 इति अहो आश्चर्यम् ! यद् वस्तु देवा न प्राप्तुं शक्नुवन्ति तदहं प्राप्तुं शक्नोमीति किमेतरस्यादिति नलस्याश्चर्यमभूदित्यर्थः / ईदृशम् एतादृशम् विरोधम् विसंगतिम् मनसिकृत्य मनसि विचार्य नैष. धेन नलेन चिराय दीर्घकालपर्यन्तम् समशायि संशयितम् चिरं संशयेऽपतदिति मावः / / 80 // व्याकरण-अधिपैः अधिकम् पातीति अधि+पा+कः (कर्तरि)। दुर्लभम् दुर्+Vल + खल्। / खल-योग में षष्ठी निवेध के कारण 'दिगधिपैः' में तृ.। तादृशम्, ईदृशम् इनके लिए पोछे श्लोक 78 देखिए / मनसिकृत्य मनसि कृत्वेति 'अनत्याधान उरसि-मनप्ती' ( 1 / 4 / 75) से विकल्प से गति-संशा होने के बाद 'कुगतिपादयः (2 / 2 / 18) से समास हो जाने से क्त्वा को ल्यप्-गति संशा के अभाव में मनसि कृत्वा ! समशायि सम् +शी+लुङ् ( भाववाच्य ) / अनुवाद-इन दिक्पालों ( इन्द्रादि ) को क्या दुर्लम है ? वैसी ( दुर्लभ ) वस्तु मेरे अधीन कैसे ?–यह आश्चर्य की बात है'--इत तरह की विसंगति को मन में सोचकर नल बहुत देर तक संशय में पड़ा रहा / / 80 // टिप्पणी--नल इन्द्र के छल को जाने बिना ही अपनी वदान्यता के प्रवाह में बह गये / धीरोदात्त निष्कपट ही हुआ करते हैं / 'तादृशं' 'ईदृशं' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। जीवितावधि वनीयकमात्रैर्याच्यमानमखिलैः सुलमं यत् / भर्थिने परिवृढाय सुराणां किं वितीर्य परितुष्यतु चेतः // 81 //

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