________________ 138 नैषधीयचरिते रूपमस्य विनिरूप्य तथातिम्लानिमाप रविवंशावतंसः / कीय॑ते यदधुनापि स देवः काल एव सकलेन जनेन // 6 // भन्वयः-रवि-वंश-वतंसः अस्य रूपम् विनिरूप्य तथा अतिम्लानिम् अवाप यत् अधुना अपि स देवः सकलेन जनेन काल एव कीत्यते / टीका--रवेः सूर्यस्य वंशस्य कुलस्य वतंस अवतंसः भूषणभूतः सूर्यपुत्रत्वात यमः इत्यर्थः अस्य नलस्य रूपम् सौन्दर्यम् विनिरूप्य दृष्ट्वा तथा तेन प्रकारेण अतिशयिता म्लानि: अतिम्लानिः ताम् (प्रादि स० ) कालिमानमित्यर्थः अवाप अप्राप्नोत् यत् यस्मात् अधुना इदानीम् अपि स देवः यमः सकलेन जनेन सगैलोकैः कालः कृष्णवर्णः अथ च एतदाख्यो देवः एव कीत्यंते कथ्यते / नलसौन्दयंभवलोक्य यम ईर्ष्यायाः नैराश्यस्य च कारणेन भृशं कालः कृष्णवर्णीभूतः सन् एवेदानीमपि काल एवोच्यते लोके इति भावः / / 62 / / व्याकरण-वतंस अवतंसयति (भूषयति ) इति अव+त+अच ( कर्तरि ) भागुरि के मत से बिकल्प से अ का लोप / म्लानिः Vम्ले-क्तिन ( मावे)। अधुना कालवाचक इदम् शब्द को सप्तमी में अधुना आदेश / कालः यास्काचाय के अनुसार 'कालः कालयते' अर्थात् सब को समाप्त कर देने वाला। अनुवाद-सूर्य-वंश का भूषण-भूत यम इस (नल ) का रूप देखकर इतना अधिक काला पड़ गया कि जिससे अब तक भी समी लोगों द्वारा वह काल ( काला ) ही कहा जा रहा है / / 62 // टिप्पणी-वैसे तो यम का नाम स्वतः काल मी है, क्योंकि वह समो को कालित-समाप्त कर देता है। काल शब्द विशेषण भी होता है, जिसका अर्थ काले रंग वाला होता है। कवि ने यहाँ काल के विशेष्य और विशेषण-परक दो विभिन्न अर्थों का अमेदाध्यवसाय कर रखा है, इसलिए विद्याधर ने यहाँ अतिशयोक्ति कही है। हमारे विचार से तो यहाँ उत्प्रेक्षा बनेगी, क्योंकि स्वनामप्रसिद्ध काल पर कवि यह कल्पना कर रहा है कि मानो वह इसलिए काल कहा जा रहा है कि नल का सौन्दर्य देखकर वह ईर्ष्या में जल-भुनकर काला जो पड़ गया था। वाचक पद के न होने से वह उत्प्रेक्षा गम्योत्प्रेक्षा ही कहीं जाएगी। हाँ, इसे हम अतिशयोक्त्युत्थापित कह सकते हैं। किन्तु कवि बदि पूर्वार्ध में म्लानिम् के स्थान में किसी तरह कालस्वम् लिखता, तो ठीक स्वारस्य बैठता / 'रूप' 'रूप्य' तथा 'काल' 'कले' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। यद् बमार दहनः खलु तापं रूपधेयभरमस्य विमश्य / तत्र भूदनलता जनिकी मा तदप्यनलतैव तु हेतुः / / 63 / / अन्वयः-दहनः अस्य रूपधेय-मरम् विमृश्य यम् तापम् बमार खलु, तत्र जनि-कौ अनलता मा मृत्, तदपि हेतुः तु अनलता एव ( आसीत् / / टीका-दहनः अग्निः अस्य नलस्य रूपधेयस्य रूपस्य सौन्दर्यस्येति यावत् भरम् अतिशयम् 110 तत्पु० ) विमृश्य विचार्य यम् तापम् संतापम् बमार भृतवान् खलु निश्चयेन, नलसौन्दर्यातिशयं दृष्ट्वा अग्निः खलु हृदये महादुःखम् अवहत् मयि एतादृशं सौन्दर्य नास्तीति / तत्र