Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 340
________________ 140 नैषधीयचरिते अनुवाद--कौशिक (इन्द्र ) कामदेव को तिरस्कृत किये हुए उस ( नल ) की सुन्दरता को (हबार ) आँखों से खूब देखकर, (बाद को ) अपने आपको (मी) पूरी तरह देखता हुमा सचमुच कौशिक ( उल्लू ) हो समझ बैठा // 64 // टिप्पणी--एक तरफ तो इन्दोवर-जैसे दो नयनों के साथ कामदेव को भी मात कर देने वाली नल की अनोखी शारीरिक सुन्दरता, दूसरी तरफ, सारे शरीर पर लगे हजार नयनों से मद्दो बनी इन्द्र की घिनौनी आकृति-दोनों में यह आकाश-पाताल का अन्तर नल के आगे इन्द्र को उल्लू बना बैठा। विद्याधर यहाँ 'मन्यते' और 'खलु' शब्द को समावना-वाचक समझकर उत्प्रेक्षा कहते हैं अर्थात् इन्द्र नल के आगे अपने को मानो उल्लू ही समझता था। हमारे विचार से यहाँ 'कौशिक अपने को कौशिक ही मान बैठा' इसमें विरोध है क्योंकि कौशिक ने स्वतः कौशिक को कौशिक कहना यह विसंगति ही है, जिसका परिहार दूसरे कौशिक शब्द का उल्लू अर्थ करके किया गया है। उल्लू शब्द मी यहाँ लाक्षणिक है, जिसका अर्थ मूर्ख है अर्थात् इन्द्र अपने को मूर्ख ही समझने लगा, जो वह अपने से इतना अधिक सुन्दर नल का प्रतिद्वन्दी बनकर दमयन्ती को ब्याहने जा रहा है। किन्तु विरोध-वाचक अपि शब्द के अनाव में यहाँ विरोधाभास ब्यङ्गय ही रहेगा। शब्दालंकारों में 'काम' 'काम' में यमक, 'कौशिकः' 'कौशिक' तथा 'खिलं' 'खलु' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। रामणोयकगुणाद्वयवादं मूर्तमुत्थितममुं परिमाग्य / विस्मयाय हृदयानि वितेरुस्तेन तेषु न सुराः प्रबभूवुः // 65 // अन्वयः--सुराः अमुम् मूर्तम् उत्थितम् रामणीयकगुणास्यवादम् परिभाव्य हृदयानि विस्मयाय वितेरुः, तेन तेषु न प्रबभूवुः / टीका--सुराः इन्द्रादयो देवाः अमुम एतम् नलमित्यर्थः मूतम् मूर्तिमन्तम् साकारमिति यावत् उत्थितम् उत्पन्नम् रामणीयकम् सौन्दर्यम् चासौ गुणः ( कर्मधा० ) तस्य अद्वयम् अद्वैतम् (10 तत्पु० ) एव वादः प्रवादः सिद्धान्त इत्यर्थः तम् ( कर्मधा० ) परिभाव्य विचार्य हृदयानि निजानि अन्तःकरणानि विस्मयाय आश्चर्याय वितेरुः प्रददुः, तेन कारणेन तेषु हदयेषु न प्रबभूवुः न समां अमवन् / नलं साकारम् सौन्दर्याद्वतवादम् , अनन्यसुन्दरमिति यावत् विचिन्त्य देवाः हृदयेषु चकितचकिताः किंकर्तव्यविमूढाश्च बभूवुरिति मावः / / 65 / / म्याकरण-सुराः इसके लिए पीछे श्लोक 34 देखिए / मूर्तम् /मूर्छ +क्तः ( कर्तरि ) उस्थितम् उत् +/स्था+क्तः ( कर्तरि )स को त / रामणीयकम् रमणीयस्य मावः इति रमणोय+ बुम बु को अक; रमणीये रम्यतेऽत्रेति रम् + अनीय ( अधिकरणे) अद्वयम् न द्वयम् (नम् तत्पु०) द्वौ अवयवौ अत्रेति दि+तयप् , तय का विकल्प से अयच अन्यथा द्वितयम् / परिभाव्य परि+/भू+पिच्+क्त्वा को ल्यप् / विस्मयः वि+/स्मि+अच् (मावे)। वितहः वि+ Vतृ+लिट (ब० व०)। .. मनवाद-देवता लोग सौन्दर्य के इस साकार उत्पन्न हुए अदेतवाद को विचारकर ( अपने) हृदय आश्चर्य को दे बैठे, इसी कारण उन (हरयों ) पर (वे ) अपना प्रभुत्व खो बैठे / / 65 //

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