________________ 256 नैषधीयचरिते व्याकरण-घनः यास्कानुसार हन्ति गच्छति गगने इति हिन्+अप ( कर्तरि ) ह कोष जबधिः बलानि पीयन्तेऽति जल+या+किः ( अधिकरणे)। संशयितुम् यहाँ सम् +/श से तुम् प्रत्यय क्रियार्थी क्रिया में न होकर लम् के योग में है 'शक-धृष"लम-क्रम०' (1465) / निस्वनः निस+/स्वन्+अप ( मावे ) / भुतिः श्र+क्तिन् ( मावे ) / अनुवाद-ये (इन्द्रादि देव ) यह संशय ही नहीं करने पाए थे कि ' / यह बन्द ) मेघ का है अथवा समुद्र का है' ( तमी) शब्द सुनने के साथ-साथ ही आये हुए रथमात्र को देख बैठे / / 59 / / टिप्पणी-यहाँ कवि ने नल की तेजी से रथ चलाने की कलामिशता पर प्रकाश डाला है। विद्याधर के अनुसार यहाँ अतिशयोक्ति ठीक ही है, क्योंकि देवताओं ने पहले रथ का शब्द सुना, पाद को मेघ की गर्नना का ज्ञान हुआ, फिर समुद्र गर्जना का, दोनों को सन्देह होने के बाद तब रथ देखा / शानों का यह कार्य-कारणमाव क्रम से ही हुआ है, किन्तु कवि ने युगपत् बता दिया है, अतः कार्यकारण-पौर्वापर्य--विपर्ययातिशयोक्ति है. जिसके साथ 'सह' शब्द सहोक्ति भी बना रहा है। शब्दालंकार वृत्त्यनुपास है। सूतविश्रमदकौतुकिमावं भावबोधचतुरं तुरगाणाम् / तत्र नेत्रजनुषः फलमेते नैषधं बुबुधिरे विबुधेन्द्राः // 6 // ___ अन्वयः--एते विबुधेन्द्राः सूत-विश्रम "भावम् , तुरगाणाम् भाव-बोध-चतुरम् नेत्र-जनुषः फलम् तत्र नैषधम् बुबुधिरे। टीका-एते विबुधानाम् देवतानाम् इन्द्राः स्वामिनः देवोत्तमा इत्यर्थः ( 10 तत्प० ) सूताय सारथये विश्रमम् विश्रान्तिम् ( च० तत्पु० ) ददाति प्रयच्छतोति तथोक्तः ( उपपद तत्पु०) कौतुकिमावः कुतूहलित्वम् ( कर्मधा० ) कौतुकिनो मावः ( 10 तत्पु० ) यस्य तथाभूतम् ( ब० व्रो०) कुतूहलवशात् सारथये विश्रमं दत्त्वा यःस्वयं रथं चालयतिस्मेति भावः तुरगाणाम् अश्वानाम् भावस्य अभिप्रायस्य हृदयाशयस्येति यावत् यो बोधः शानम् (10 तत्प० ) तस्मिन् चतुरम निपषम् ( स० तत्पु० ) अश्वहृदयाभिशमित्यर्थः नेत्रयोः नयनयोः जनुषः जन्मनः (10 तत्प० ) फलम् प्रयोजनम् नयनसाफल्यजनकं सर्वातिशायि-सौन्दयेंष नयनानन्दकरमिति यावत् नैषधम् निषधराज नलम् बुबुधिरे शातवन्तः // 60 / / ___ व्याकरण-विश्रमः वि+ अम् + अप् ( भावे ) / विश्रमदः ददातोति /दा+कः ( वर्तरि ) / कौतुको कुतुकमस्यास्तीति कुतुक+इन् ( मतुबर्थ ) / तुरगः तुरेण ( वेगेन ) गच्छतीति तुर+ गम् +डः ( कर्तरि ) / जनुष/जन् + उस ( भावे ) / नैषधम्--निषधानाम् अयमिति निषध+अण् / किन्तु समझ में नहीं आता कि मल्लिनाथ क्यों 'जनपदशन्दात् क्षात्रयादण' लिख गए, क्योंकि निषध शब्द नादि होने से यहाँ अण को बाधकर ण्य हो जाएगा ( 'कुरु नादिभ्यो ण्य 4 / 1 / 172 ) और नैषध्य रूप बनेगा। इसीलिए मट्टोनी दीक्षित ने कहा है-'स नैषधस्यार्थपतेः' इत्यादौ तु 'शैषिकोऽण् / बुबुधिरे बुध+लिट ब० व०। भनुवाद-ये देवताओं के स्वामी (इन्द्रादि ) सारथि को विश्राम देने का कुतूहल रखने वाले,