Book Title: Naishadhiya Charitam 02
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

View full book text
Previous | Next

Page 320
________________ 120 नैषधीयचरिते अनुवाद-विश्वरूप के कलन ( धारण ) के कारण वह ( विष्णु ) विश्व-रूपों (विश्वेदेवा. धिकरण और रूपाधिकरण) का कलन ( प्रणयन ) करने वाले जैमिनि मुनि बन बैठे हैं-यह ठीक ही है। वह ( विष्णु ) देवताओं का विग्रह (शरीर ) न सहन करने वाले जैमिनि मुनि की तरह देवताओं का विग्रह ( युद्ध ) न सहते हुए मेरे वज्र को व्यर्थ कर गये हैं / / 36 // टिप्पणी-यहाँ कवि श्लिष्ट भाषा का प्रयोग करके उपेन्द्र ( विष्णु ) को जैमिनि मुनि वना बंठा है / दोनों में विश्वरूपकलन देवताओं का विग्रह-असहन और वज्र का ब्योंकरण समान हैं। इन शब्दों का दोनों में पृथक् लगने वाला अर्थ हम टीका में स्पष्ट कर चुके हैं। विष्णु के सुदर्शन चक्र के सामने देवताओं के साथ राक्षसों को विग्रह ( युद्ध ) करने की मला क्या हिम्मत ? इन्द्रको अपना वज्र काम में लाने की आवश्यकता हो नहीं पड़ती वह वैसे ही बेकार पड़ा रहता है / जैमिनि के तकों के सामने भी देवताओं का विग्रह (शरीर ) मी भला कैसे टिके ? मोमांसा के अनुसार देवताओं का कोई शरीर नहीं होता जैसे कि न्याय, वैशेषिक श्रादि पाँच दर्शनकारों और पुराणों ने माना है / देवता यदि शरीरी होते, तो एक ही समय अनेक स्थानों में हो रहे यशों में वे कैसे पहुँच सकते हैं ? शरीर एक हो तो है / वह एक हो जगह जा सकता है। यदि यह कहो कि देवता लोग 'महामाग्यात्'–ऐश्वर्य-से युगपत् समी-यशों में जाकर हवि ग्रहण कर लेते हैं; यह मो अनुपपन्न है, क्योंकि यास्काचार्य के अनुसार देवता का लक्षण है 'मन्त्रे स्तूयमानत्वम्' अर्थात् मन्त्र में जिसकी स्तुति या वर्णना की गयी हो। अनुक्रमप्पोकार का मी यही कहना है-'या काचित् मन्त्रे अयते, सा देवता चेतना अचेतना वा भवतु। क्वचिदाणाः क्वचिद्धनुः क्वचिन्मौवा" / बाण, ग्रावा आदि देवतामों में प्रत्यक्षतः कोई 'ऐश्वर्य' नहीं पाते तो इन्द्र, विष्णु आदि में भी वह कैसे हो सकता है ? इसलिये देवता मन्त्ररूप ही होते हैं, शरीर रूप नहीं / 'इन्द्राय स्वाहा इदमिन्द्राय' यही चतुध्यन्त मन्त्र देवता का स्वरूप है जिसको युगपत् सभी जगह उपस्थिति उपपन्न है। प्रश्न उठता है कि फिर वेदों में इन्द्र को 'वज्रहस्त' आदि रूप में क्यों पुकारा गया ? शरीर ही नहीं तो हाथ कैसे? हाथ ही नहीं तो वज्र कैसे? इसी तरह इन्द्र विष्णु आदि की पत्नियों पुत्र आदि कैसे ? उनके घर आदि कैसे ? इस तरह अशरीरी मानने से सारे शास्त्र ही झूठे पड़ जायेंगे, वेद अप्रमाण हो जायेंगे। इसका उत्तर जैमिनि ने यह दिया है-'विरोधे गुपवादः' अर्थात् वेदों या अन्य शास्त्रों में यदि विरोध अथवा अनुपपत्ति की बातें मिले, तो वहाँ गुषवाद-लाशपिक प्रयोग-ही समझें। लोक की तरह वेदादि में मुख्य प्रयोग भी हैं और गौण प्रयोग भी। देवताओं के हाथ, पत्नी, आयुध, वाहन आदि सब गोण प्रयोग हैं / लोक में अशरीरिणो रजनी को लक्ष्य करके लोग कहते हो है -'सितारों-जड़ो नीली साड़ी पहने, कहाँ चली हो, तुम ओ रजनो बाले!' इसी तरह की काव्य-माषा वेदादि में भी है / विस्तार के साथ इस 'गुणवाद' के समन्वय के लिए निरुक्त का दैवत काण्ड तथा मीमांसा-ग्रन्थ पढ़िये / इस तरह जैमिनि के अनुसार जब इन्द्र का शरीर हो नहीं, तो फिर उसके वज्र को सत्ता कहाँ रहो ? वज्र स्वतः बेकार हो गया / विद्याधर ने यहाँ अतिशयोक्ति मानी है / किन्तु हमारे विचार से आरोप-बिषय 'तस्य' और आरोप-विषयी 'जैमिनिमुनित्वम्-दोनों के शब्दों के विभिन्न अथों में

Loading...

Page Navigation
1 ... 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402