________________ पञ्चमसर्गः टिप्पणी-दनुज-कश्यप प्रजापति की अदिति और दिति-दो पत्नियों थी। दिति को ही दनु भी कहते हैं / इसकी जो सन्ताने हैं वे दैत्य दनुन या दानव कहलाई। इन्हें ही राक्षस मी कहते हैं, जिनका संहार विष्णु के हाथों होता रहता था। निज अनुज भगवान का पाँचवा अवतार वामन था जब विष्णु इन्द्र के छोटे माई के रूप में हुए जिन्हें उपेन्द्र भी कहते हैं, देखिए अमरकोश-'उपेन्द्र इन्द्रावरनश्चक्रपाणिश्चतुर्भुजः'। माघ ने कृष्ण का 'यदुपेन्द्रस्त्वमतीन्द्र एव सः' रूपमें उल्लेख किया है। भुज पर अङ्कत्व का आरोप होने से रूपक है / 'रणे' 'रण' में छेक है। 'नुजे 'निजे' 'नुजा' में एक से अधिक बार आवृत्ति होने से वृत्त्यनुप्रास ही है; 'भुजाङ्कम्' 'जयाङ्कम्' में पदान्तगत अन्त्यान पास है, और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / 'वीत-विशङ्कः' में पुनरुक्तवदामास है, क्योंकि आपाततः वीत और वि ( विगत ) में पुनरुक्ति दीख रही है, किन्तु 'विशङ्कः' में विका विशिष्ट या विविध अर्थ करने से पुनरुक्ति नहीं रहती। विश्वरूपकलनामुपपन्नं तस्य जैमिनिमुनिस्वमुदीये। विग्रहं मखभुजामसहिष्णुर्व्यर्थतां मदशनि स निनाय // 39 // अन्वयः-तस्य विश्वरूप-कलनात् जैमिनि-मुनित्वम् उदोये ( इति ) उपपन्नम् ( एवास्ति ) / स मखभुजाम् विग्रहम् असहिष्णुः मदशनिम् व्यर्थताम् निनाय / टोका-तस्य उपेन्द्रस्य विष्णोरित्यर्थः विश्वस्य जगतः यत् रूपं स्वरूपम् तस्य कलनात् धारपात् ( उभयत्र प० तत्पु० ) विष्णुपुराणे 'सव विष्णुमयं जगत्' इत्युक्त्यनुसारेण विष्णोः सर्वात्मक. स्वमभ्युपेयते जैमिनिः एतन्नामा चासौ मुनिः (कर्मधा० ) तस्य भावः तत्त्वम् उदीये उदितम् उत्पन्नमित्यर्थः, इति उपपन्नम् उचितम् एव, विष्णुः जमिनिमुनीभूतः इति युक्तमेवेत्यर्थः / जैमिनिहिं विश्वान्तःपाती, विष्योश्च विश्वात्मकत्वेन जैमिनिरूपत्वे न काऽपि अनौचितीति भावः / स जैमिनिरूपो ममानुजः मखभुजाम् देवतानाम् विग्रहम् युद्धम् असहिष्णुः असहमानः मम अशनिम् वज्रम् ('ह्नादिनी वज्रमस्त्री स्यात् दम्भोलिरशनियोः' इत्यमरः) व्यर्थताम् वैयर्थ्यम् निनाय प्रापितवान् , स्वयमेव चक्रेण शत्रन् निहत्य अनुपयोगेन म व्ययींचकारेति भावः / अथ ( जैमिनिपक्षे) विश्वे च रूपं च तयोः विश्वेदेवाधिकरण-रूपाधिकरणयोः (द्वन्द्व ) कलनात् रचनात् / (10 तत्पु० ) मीमांसा शास्त्रे विश्वेदेवाधिकरणं रूपाधिकरणं चेत्यधिकरण ( प्रकरण ) द्वयं जैमिनिना रचितमस्ति मखभुजाम् विग्रहं शरीरम् असहिष्णुः देवतानां शरीरम् अमन्यमान इत्यर्थः मदशनि व्यर्थताम् निनाय, शरीराभावे वज्रधारणस्याप्तंभवादित्यर्थः / / 39 // __ व्याकरण-उदीये-उत् +/ईङ् ( दिवा० ) लिट् / मल्लिनाथ, पण गतौ 'कर्तरि लट' यह कैसे लिख गए, समझ में नहीं आता। यह तो बच्चा-बच्चा भी जानता है कि इण ( अदा०) परस्मैपद होता है और उसका लट में 'एति' बनता है / इसीलिए म०म० शिवदत्त तो झल्लाकर अपने पाद-टिप्पण में 'मल्लिनाथस्तु रूढया महामहोपाध्यायः' लिख वैठे अर्थात् मल्लिनाथ नाम के ही म०म० 1, शान के नहीं / मखभुजाम् मख+ भुज + त्रिप् ( कर्तरि ) / असहिष्णुः न+/स+ कृष्णच् ( कर्तरि ) / निनाय/नी+लिट् /