________________ पञ्चमसर्गः मावः / इति हन्त ! हर्षे यद्यपि अहं वेद जाने, सदपि तथापि पृष्छयसे प्रश्नविषयीक्रियसे येन यता विषये कस्मिंश्चित् वस्तुनि रसस्य अनुरागस्य सेकः आधिक्यमित्यर्थः, अथ च रसस्य जलस्य सेकः सेचनम् विवेकस्य विशेषज्ञानस्य प्रोन्छनाय निराकरणाय ( 10 तत्पु० ) विशेषशानाभावायेति यावत् अथ च विवेकाय पार्थक्येन ग्रहणाथ यत् प्रोन्छनम् वस्त्रादिना जलस्यापाकरणम् तस्मै ( च० तत्पु० ) भवति / कस्मिंश्चिद्वस्तुनि अत्यधिकानुरागः मनुष्येषु विवेकं नाशयतीति मावः / / 36 / / व्याकरण-हन्ता हन्तीति /हन्+तृच् ( कर्तरि ) / वेद विद्+कट और पलादेश ( 'विदो लटो वा' 3 / 4 / 86 ) विवेकः वि+/विच्+घञ् ( मावे ) / प्रोग्छनम्पोछ+ ल्युट ( भावे ) सेकः सिच्+घम् ( मावे ) / अनुवाद - हन्ता-शत्रु-पर निष्करुण आपका कोई भी विरोध नहीं करता है-यह मैं यद्यपि प्रसन्नता-पूर्वक जानता हूँ, तथापि ( यहाँ युद्धके विषय में ) भापको पूछ रहा हूँ। कारण यह है कि (किसी ) विषय पर ( रस-सेक रागासक्ति ) विवेक पोंछने-मिटाने को होती है ( जैसे कि रस-सेक) ( जलद्वारा सिंचन ) (चित्र आदि वस्तु को ) साफ-साफ देखने हेतु पोंछने के लिए होता है / / 36 // टिप्पणी-यहाँ श्लोक के आदिम तीनपादों में नारद का यह कहना कि 'मापसे किसी की भीलड़ाई करने की हिम्मत क्योंकर होगी जबकि आप उसको जड़मूल से मिटा देनेवाले हैं, लेकिन फिर भी पूछ रहा हूँ कि यहाँ लड़ाई तो नहीं हो रही ?' इस विशेष बात का चौथे पाद की इस सामान्य बात से समर्थन किया जारहा है कि लोगों में किसी भी वस्तु पर अत्यधिक भासक्ति या लगाव उनके विवेक को समाप्त कर देता है; वह यह नहीं समझता कि यह बात बोलनी या पूछनी चाहिर कि नहीं इस तरह यहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार है। उसी चौथेपाद में श्लेष रखकर कवि यह मी बता रहा है कि किसी भी धूल या मैल लगी चित्र, दर्पण आदि वस्तु पर पानी छिड़ककर पोछे कपड़े से पोंछ देते हैं जिससे कि वह साफ-साफ दिखाई पड़े। यह दूसरा अर्थ यहाँ बिलकुल असम्बद्ध है, अप्रस्तुत है; सम्बन्ध जोड़ने के लिए उपमानोपमेयमाव की कल्पना करनी पड़ रही है जिसे हम उपमाध्वनि कहेंगे। इस तरह यहाँ वस्तु से अलंकार-ध्वनि मी है / 'हन्त' 'हन्त्र' 'रुणं' 'रुण' में छेक और अन्यत्र प्रत्यनुप्रास है। एवमुक्तवति देवऋषीन्द्रे द्रागभेदि मघवाननमुद्रा / उत्तरोत्तरशुमो हि विभूनां कोऽपि मम्जुलतमः क्रमवादः // 37 // अन्वय-देव ऋषीन्द्रे एवम् उक्तवति सति मघवानन-मुद्रा द्राक् अमेदि, हि विभूनाम् मन्जुलतमः कः अपि क्रमवद्धः उत्तरोत्तर-शुमः (भत्रति ) / टोका-देवश्चासौ ऋषीन्द्रः ( कर्मधा० ) ऋषीणाम् इन्द्रः श्रेष्ठः (10 तत्पु०) तस्मिन् मुनि श्रेष्ठ नारदे इत्यर्थः एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण उक्तवति कथितवति सति मघोनः इन्द्रस्य भाननस्य मुखस्य मुद्रा मौनम् ( उभयत्र प० तत्पु० ) द्राक् शीघम् यथा स्वात्तथा अमेदि मिना हि यतः विभूनाम् प्रभूणाम् अतिशयेन मञ्जः इति मन्जुलतमः रमणीयतमः कः अपि विलक्षणः क्रमेण